सृष्टि की उत्पत्ति: परमात्मा की विभूतियों से ब्रह्मांड का निर्माण
परिचय
सनातन धर्म में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन अत्यंत विस्तृत और गहन है। बृहद पराशर होरा शास्त्र और विभिन्न पुराणों में इस विषय पर गहन विवेचना की गई है। विशेष रूप से, ऋषि पराशर ने सृष्टि के रहस्यों को विस्तार से बताया है। इस लेख में, हम भगवान नारायण की विभूतियों और उनकी शक्तियों के माध्यम से ब्रह्मांड की रचना की प्रक्रिया को समझेंगे।
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Table of Contents
भगवान नारायण और उनकी शक्तियाँ
भगवान नारायण, जिन्हें परमात्मा कहा जाता है, गुणातीत (गुणों से परे) हैं। लेकिन वे सत्व, रजस और तमस—इन तीनों गुणों के भी अधिष्ठाता हैं। भगवान नारायण ने अपनी एक-चौथाई शक्ति से ब्रह्मांड का निर्माण किया। उनकी शेष तीन-चौथाई शक्तियाँ अप्रकट हैं।
भगवान नारायण की चार भागों में विभाजन
- तीन अप्रकट भाग
- हर भाग में एक-एक शक्ति समाहित है:
- श्री शक्ति: भगवान के महा विष्णु रूप से संबद्ध।
- भू शक्ति: भगवान के परम ब्रह्मा रूप से संबद्ध।
- नीला शक्ति: भगवान के सदाशिव रूप से संबद्ध।
- ये तीनों भाग दिव्य अमृत से भरे हुए हैं और परमात्मा के आध्यात्मिक और अनादि स्वरूप का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- हर भाग में एक-एक शक्ति समाहित है:
- चौथा भाग (वसु्देव)
- यह भाग सृष्टि का मुख्य रचनाकार है।
- वासुदेव दो रूपों में है:
- अप्रकट रूप: श्री शक्ति और भू शक्ति के साथ, जो सत्व और रजस गुणों का प्रतिनिधित्व करता है।
- प्रकट रूप: श्री शक्ति, भू शक्ति और नीला शक्ति के साथ, जो तमस गुण का प्रतिनिधित्व करता है।
सृष्टि की रचना की प्रक्रिया
भगवान वासुदेव के विभिन्न रूपों और उनकी शक्तियों के संयोजन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई।
वासुदेव के तीन रूप
- अनिरुद्ध (सत्व गुण)
- पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक।
- प्रद्युम्न (रजस गुण)
- सृजन, इच्छा और सक्रियता का प्रतीक।
- संकर्षण (तमस गुण)
- अज्ञान, आलस्य और अंधकार का प्रतीक।
अहंकार और महतत्व
इन तीनों रूपों ने अहंकार (स्व-अस्मिता या व्यक्तित्व का बोध) को जन्म दिया:
- अनिरुद्ध का अहंकार: ब्रह्म अहंकार, जो दिव्यता का प्रतीक है।
- प्रद्युम्न का अहंकार: सृजनात्मक बुद्धि और इंद्रियों का स्रोत।
- संकर्षण का अहंकार: महत्तत्व (पंच महाभूतों का आधार) का जनक।
सृष्टि की उत्पत्ति
तीन शक्तियों का संयोजन
भगवान नारायण की तीन शक्तियाँ—श्री शक्ति, भू शक्ति और नीला शक्ति—अहंकार के विभिन्न रूपों के साथ मिलकर सृष्टि का निर्माण करती हैं:
- श्री शक्ति + अनिरुद्ध का अहंकार
- 33 देवताओं की उत्पत्ति।
- भू शक्ति + प्रद्युम्न का अहंकार
- दस इंद्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेंद्रियाँ) और मन की उत्पत्ति।
- नीला शक्ति + संकर्षण का महत्तत्व
- तन्मात्राएँ (पंच महाभूतों के सूक्ष्म रूप) और भूत (स्थूल रूप) की उत्पत्ति।
पंच महाभूतों की भूमिका
संकर्षण से उत्पन्न महत्तत्व ने पंच महाभूतों (अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश) को जन्म दिया। ये सभी तत्व सृष्टि के स्थूल और सूक्ष्म दोनों रूपों का आधार हैं।
जीवात्मा और परमात्मा
भगवान नारायण के अनुसार, हर जीव में दो तत्व मौजूद हैं:
- जीवात्मा (व्यक्तिगत आत्मा): यह कर्म और संसार के प्रभाव में रहती है।
- परमात्मा (सर्वोच्च आत्मा): यह जीव में निहित दिव्यता का प्रतीक है।
जीवों और देवताओं में अंतर
- देवता और ग्रह (ज्योतिषीय ग्रह) परमात्मांश से अधिक प्रभावित होते हैं।
- सामान्य जीवों में जीवात्मांश का प्रभाव अधिक होता है।
- सत्व गुण की अधिकता जीव को दिव्यता की ओर ले जाती है, जबकि रजस और तमस गुण संसारिकता और अज्ञान का कारण बनते हैं।
ज्योतिष में सृष्टि का महत्व
बृहद पराशर होरा शास्त्र के अनुसार, सृष्टि के ये तत्व ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों और उनके प्रभाव को समझने का आधार प्रदान करते हैं।
- ग्रहों के गुण और शक्तियाँ:
- सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि और राहु-केतु जैसे ग्रहों का व्यक्तित्व सृष्टि की रचना से जुड़े गुणों पर आधारित है।
- मानव जीवन पर प्रभाव:
- ग्रहों के प्रभाव से व्यक्तियों में सत्व, रजस और तमस गुणों की प्रधानता तय होती है।
विशेष ग्रहों का महत्व
सृष्टि की रचना में जो गुण और शक्तियाँ शामिल हैं, वे केवल चुनिंदा ग्रहों के माध्यम से ज्योतिषीय अध्ययन में शामिल होती हैं।
निष्कर्ष
ऋषि पराशर के अनुसार, भगवान नारायण के एक छोटे अंश से पूरा ब्रह्मांड बना है, और हर जीव में उनका अंश विद्यमान है। यह सृष्टि केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और दिव्य शक्तियों का संगम है।
सृष्टि के इस दर्शन को समझने से न केवल ज्योतिष शास्त्र की जटिलताएँ स्पष्ट होती हैं, बल्कि यह भी पता चलता है कि हर जीव अपने भीतर परमात्मा का अंश लेकर चलता है। यह दर्शन जीवन को समझने और उसे सही दिशा में चलाने का मार्गदर्शन करता है।
“सृष्टि का हर कण भगवान नारायण की शक्ति का प्रतीक है।”