Srimad-Bhagavadgita

Srimad Bhagavadgita Chapter 13 श्लोक 11 – 20

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी |
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि || 11 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 11वां श्लोक है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान के लक्षण और गुणों को विस्तार से बताया है। इसे हम विस्तार से हिंदी में समझते हैं:


श्लोक का अर्थ:

  1. मयि च अनन्ययोगेन भक्तिः अव्यभिचारिणी
    • “मेरे प्रति अनन्य योग से अविचल (निष्ठावान) भक्ति हो।”
    • इसका अर्थ है कि साधक की भक्ति केवल भगवान में होनी चाहिए और उसमें कोई विचलन या भटकाव न हो। यह भक्ति अनन्य होनी चाहिए, अर्थात् केवल भगवान के लिए समर्पित और निस्वार्थ।
  2. विविक्तदेशसेवित्वम्
    • “एकांत स्थान में रहने की इच्छा।”
    • यहाँ एकांत का अर्थ शारीरिक रूप से एकांत स्थान पर रहना ही नहीं, बल्कि मानसिक रूप से भी बाहरी विकारों से दूर होना है। विविक्त स्थान आत्ममंथन और ध्यान के लिए आवश्यक है।
  3. अरति: जनसंसदि
    • “लोगों की भीड़ में रुचि न होना।”
    • इसका मतलब है कि साधक को संसार के दिखावे, अति-भौतिक वार्तालाप, और व्यर्थ की सामाजिक गतिविधियों में रुचि नहीं रखनी चाहिए।

स्पष्ट व्याख्या:

1. अनन्य योग और अव्यभिचारिणी भक्ति:

  • अनन्य भक्ति वह होती है, जो ईश्वर के प्रति पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ की जाती है।
  • ‘अव्यभिचारिणी’ का मतलब है कि भक्ति कभी डगमगाए नहीं, चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों।
  • उदाहरण: प्रह्लाद, जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी भगवान विष्णु के प्रति अपनी भक्ति नहीं छोड़ी।

2. विविक्तदेशसेवित्वम् (एकांत साधना):

  • एकांत में रहना, ध्यान और आत्मचिंतन के लिए आवश्यक होता है।
  • ‘विविक्त’ स्थान वह है, जहाँ मनुष्य अपने भीतर झांक सके और संसार की बाहरी हलचल से प्रभावित न हो।
  • उदाहरण: महर्षि वाल्मीकि ने एकांत स्थान में तप करके रामायण जैसे महाकाव्य की रचना की।

3. अरति जनसंसदि:

  • ‘जनसंसद’ का मतलब है सामाजिक भीड़-भाड़।
  • यहाँ यह कहा गया है कि साधक को व्यर्थ की सामाजिक गतिविधियों में रुचि नहीं लेनी चाहिए।
  • उदाहरण: संत कबीर और संत तुलसीदास जैसे भक्तों ने भीड़ से दूर रहकर साधना की और समाज को ज्ञान दिया।
  • यह गुण आज के युग में भी महत्वपूर्ण है, जहाँ ध्यान भटकाने वाली चीजें बहुत हैं (जैसे सोशल मीडिया, टीवी आदि)।

आध्यात्मिक संदर्भ:

  • इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान के गुणों को समझाया है।
  • इन गुणों को अपनाने से साधक ईश्वर के करीब पहुँचता है और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
  • यह श्लोक हमें भक्ति, आत्मनिरीक्षण और संसार की चकाचौंध से अलग होकर ध्यान और साधना पर केंद्रित रहने की प्रेरणा देता है।

उपयुक्त उदाहरण:

  1. अनन्य भक्ति: मीरा बाई ने केवल भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति की, चाहे उनके जीवन में कितनी भी कठिनाइयाँ आईं।
  2. विविक्त देश: महात्मा गांधी ने भी ‘विविक्त स्थान’ को अपने ध्यान और आत्मचिंतन के लिए महत्व दिया।
  3. जनसंसद में अरुचि: विवेकानंद ने भीड़-भाड़ से दूर रहकर अपनी साधना और चिंतन से समाज को नई दिशा दी।

समकालीन उपयोगिता:

  • आज के युग में, बाहरी विकारों और भौतिक चकाचौंध से बचने के लिए एकांत में समय बिताना और आत्मचिंतन करना बेहद आवश्यक है।
  • सोशल मीडिया के प्रभाव को कम करके, अपनी भक्ति और ध्यान में स्थिर रहना ही सही अर्थों में इस श्लोक का पालन करना है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक भक्ति, आत्मचिंतन, और समाज में रहकर भी समाज के अनावश्यक पहलुओं से दूरी बनाए रखने की प्रेरणा देता है। इसे अपनाने से व्यक्ति मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त कर सकता है।


अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् |
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा || 12 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 12वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान और अज्ञान के स्वरूप को स्पष्ट किया है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:


श्लोक का अर्थ:

  1. अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम्
    • “अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिर रहना।”
    • इसका अर्थ है कि आत्मा, परमात्मा और उनके संबंध को जानने के प्रति सतत अभ्यास करना और इस सत्य में दृढ़ रहना।
  2. तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्
    • “तत्त्व ज्ञान को जानने की दृष्टि।”
    • इसका मतलब है कि वास्तविक सत्य और तत्त्वों को समझने के लिए गहन विचार और विवेक होना चाहिए। यह सत्य है कि आत्मा ही शाश्वत है और शरीर नश्वर।
  3. एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तम्
    • “इसे ही ज्ञान कहा गया है।”
    • यह सभी गुण और दृष्टिकोण ज्ञान के तत्व हैं, जिन्हें भगवान ने ‘ज्ञान’ की परिभाषा दी है।
  4. अज्ञानं यत अतोऽन्यथा
    • “जो इसके विपरीत है, वह अज्ञान है।”
    • इसका तात्पर्य है कि इन मूल तत्वों और विचारों से हटकर जो कुछ भी है, वह अज्ञान है।

स्पष्ट व्याख्या:

1. अध्यात्मज्ञाननित्यत्वम्:

  • यहाँ ‘अध्यात्म ज्ञान’ से तात्पर्य आत्मा और परमात्मा के बारे में ज्ञान से है।
  • इसे समझने और अनुभव करने के लिए व्यक्ति को सतत साधना, ध्यान और आध्यात्मिक चिंतन में लगे रहना चाहिए।
  • उदाहरण: महर्षि पतंजलि के योग सूत्रों में भी आत्मा के ज्ञान और उसके अभ्यास पर बल दिया गया है।

2. तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्:

  • ‘तत्त्वज्ञान’ का अर्थ है सृष्टि के मूल कारण, आत्मा और परमात्मा को समझना।
  • यह समझने के लिए व्यक्ति को अपने जीवन का उद्देश्य जानना होगा।
  • उदाहरण: ऋषि दयानंद सरस्वती ने वेदों के माध्यम से तत्त्वज्ञान का प्रचार किया।

3. ज्ञान और अज्ञान का भेद:

  • भगवान ने यह स्पष्ट किया है कि जो व्यक्ति आत्मा, परमात्मा, और उनके संबंध को समझता है, वही ज्ञानी है।
  • इसके विपरीत, जो केवल भौतिक सुखों और असत्य में उलझा रहता है, वह अज्ञानी है।
  • उदाहरण: राजा जनक ने ज्ञान प्राप्त कर सांसारिक जीवन जीते हुए भी मोक्ष का अनुभव किया।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

यह श्लोक ज्ञान और अज्ञान के बीच स्पष्ट भेद करता है।

  1. ज्ञान के लक्षण:
    • आत्मा और परमात्मा के प्रति समझ।
    • इस समझ को प्राप्त करने के लिए सतत साधना।
    • तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप का अध्ययन।
  2. अज्ञान के लक्षण:
    • आत्मा के अस्तित्व को नकारना।
    • भौतिक जगत में उलझे रहना।
    • परम सत्य को न समझना।

उदाहरण:

  1. ज्ञान:
    • एक ज्ञानी व्यक्ति इस तथ्य को समझता है कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है। वह अपने कर्म और विचारों को इसी समझ के आधार पर संचालित करता है।
    • जैसे, स्वामी विवेकानंद ने आत्मा और परमात्मा के ज्ञान का प्रचार किया।
  2. अज्ञान:
    • अज्ञानी व्यक्ति शरीर और भौतिक सुखों को ही सब कुछ मानता है और आत्मा की सच्चाई से अज्ञात रहता है।
    • जैसे, दुर्योधन ने केवल सत्ता और धन को महत्व दिया और अपने अज्ञान के कारण विनाश का कारण बना।

समकालीन संदर्भ:

आज के युग में यह श्लोक अत्यंत प्रासंगिक है।

  • लोगों का ध्यान भौतिक सुखों और संसारिक उपलब्धियों में उलझा हुआ है।
  • आध्यात्मिकता और आत्म-चिंतन के अभ्यास से व्यक्ति अपने वास्तविक उद्देश्य को समझ सकता है।

आधुनिक उदाहरण:

  • ध्यान और योग की बढ़ती लोकप्रियता दर्शाती है कि लोग अब आत्मिक शांति और ज्ञान की ओर बढ़ रहे हैं।

निष्कर्ष:

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने सच्चे ज्ञान और अज्ञान के बीच स्पष्ट भेद किया है।

  • ज्ञान में आत्मा और परमात्मा का सत्य है।
  • अज्ञान में संसार की असत्यता में उलझाव है।
    यदि व्यक्ति इस ज्ञान को समझ ले, तो वह आध्यात्मिक और मानसिक उन्नति की ओर अग्रसर हो सकता है।

ज्ञेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते |
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते || 13 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 13वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान के विषय (परम ब्रह्म) के बारे में बताया है। इसे विस्तार से समझते हैं:


श्लोक का अर्थ:

  1. ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामि
    • “जो जानने योग्य है, उसे मैं बताने जा रहा हूँ।”
    • यहाँ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह उस वस्तु (परम सत्य) का वर्णन करेंगे, जिसे जानने से जीवन का अंतिम उद्देश्य पूरा होता है।
  2. यज्ज्ञात्वा अमृतमश्नुते
    • “जिसे जानकर व्यक्ति अमृत (मोक्ष या शाश्वत शांति) का अनुभव करता है।”
    • यह ज्ञान आत्मा और परमात्मा का ज्ञान है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति दिलाता है।
  3. अनादिमत् परं ब्रह्म
    • “वह ब्रह्म, जो अनादि और परे है।”
    • ब्रह्म का कोई आरंभ (शुरुआत) नहीं है, और यह सभी कारणों का कारण है।
  4. न सत् तत् न असत् उच्यते
    • “न तो वह सत् (अर्थात् स्पष्ट रूप से दिखने वाला) है, न असत् (अर्थात् पूर्णतः अदृश्य)।”
    • इसका अर्थ है कि ब्रह्म का स्वरूप हमारी सामान्य इंद्रियों और बुद्धि से परे है। यह न तो भौतिक वस्तु है और न ही इसे पूर्ण शून्यता कहा जा सकता है।

स्पष्ट व्याख्या:

1. ज्ञेयं (जानने योग्य):

  • यहाँ “ज्ञेयं” का तात्पर्य उस परम सत्य से है, जिसे जानना जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
  • यह परम सत्य ब्रह्म है, जो समस्त सृष्टि का आधार है।

2. अमृत (मोक्ष):

  • इस ज्ञान को प्राप्त करने से व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर परम शांति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
  • यह “अमृतत्व” ईश्वर के साथ एकात्मकता की अवस्था है।

3. अनादिमत् परं ब्रह्म:

  • ब्रह्म अनादि (जिसका कोई आरंभ नहीं है) है और यह सर्वोच्च तत्त्व है।
  • यह संपूर्ण सृष्टि का कारण है, लेकिन स्वयं किसी कारण से उत्पन्न नहीं हुआ।
  • उदाहरण: जैसे आकाश, जो अनादि है और सब कुछ समाहित करता है।

4. न सत् न असत्:

  • ब्रह्म न तो पूर्णतः सत् (दृश्य जगत) है और न ही पूर्णतः असत् (शून्यता)।
  • यह मायिक जगत से परे है, और इसका स्वरूप इंद्रियों से अनुभूत नहीं किया जा सकता।
  • इसे केवल ध्यान, भक्ति, और ज्ञान द्वारा अनुभव किया जा सकता है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

  1. परम ब्रह्म का स्वरूप:
    ब्रह्म को समझने के लिए व्यक्ति को इंद्रियों और मन से ऊपर उठकर आत्मज्ञान प्राप्त करना होगा।
  2. ज्ञान का महत्व:
    • ब्रह्म का ज्ञान ही सत्य ज्ञान है।
    • यह ज्ञान व्यक्ति को अमृत (मोक्ष) का अनुभव कराता है।
  3. अनुभव और तर्क से परे:
    • ब्रह्म तर्क और बुद्धि से परे है।
    • इसे केवल अनुभव द्वारा जाना जा सकता है।

उदाहरण:

  1. अनादि ब्रह्म:
    जैसे सूर्य की किरणें सूर्य से आती हैं, लेकिन सूर्य का स्वयं कोई आरंभ नहीं है, वैसे ही ब्रह्म अनादि है।
  2. न सत् न असत्:
    • स्वप्न की अवस्था में जो दिखता है, वह सत् (वास्तविक) नहीं होता, लेकिन वह पूरी तरह से असत् (निरर्थक) भी नहीं है।
    • इसी प्रकार, ब्रह्म मायिक जगत से परे है।

समकालीन संदर्भ:

आज के युग में इस श्लोक की प्रासंगिकता:

  • आध्यात्मिक जागरूकता: व्यक्ति को अपनी इंद्रियों और भौतिक इच्छाओं से ऊपर उठकर आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करना चाहिए।
  • शांति और मोक्ष: आज के जीवन में तनाव और अनिश्चितताओं के बीच, ब्रह्म का ज्ञान हमें सच्ची शांति और आनंद की ओर ले जा सकता है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक ब्रह्म के स्वरूप और उसके महत्व को स्पष्ट करता है।

  • ब्रह्म अनादि और परे है, जो भौतिक और मानसिक सीमाओं से ऊपर है।
  • इसे जानने से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।
    यह श्लोक आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष की परिभाषा समझने में हमारी सहायता करता है।

सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् |
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति || 14 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 14वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने परमात्मा की सर्वव्यापकता और उनकी गुणात्मक अभिव्यक्ति को स्पष्ट किया है। इसे विस्तार से समझते हैं:


श्लोक का अर्थ:

  1. सर्वतः पाणिपादं तत्
    • “उसके (परमात्मा के) हाथ और पैर हर जगह हैं।”
    • यह परमात्मा की सर्वव्यापकता को दर्शाता है। वह सभी प्राणियों में विद्यमान हैं और उनकी शक्ति हर दिशा में कार्य कर रही है।
  2. सर्वतः अक्षिशिरोमुखम्
    • “उसकी आंखें, सिर और मुख हर दिशा में हैं।”
    • इसका अर्थ है कि परमात्मा सब कुछ देखता, जानता और सुनता है।
  3. सर्वतः श्रुतिमत् लोके
    • “उसके कान हर जगह हैं।”
    • वह सभी ध्वनियों को सुनता है और किसी भी घटना या कार्य से अछूता नहीं है।
  4. सर्वमावृत्य तिष्ठति
    • “वह सब कुछ व्याप्त करके स्थित है।”
    • परमात्मा संपूर्ण सृष्टि में विद्यमान है और हर जगह उसकी उपस्थिति महसूस की जा सकती है।

स्पष्ट व्याख्या:

1. परमात्मा की सर्वव्यापकता:

  • यह श्लोक परमात्मा की असीमित शक्ति और सर्वव्याप्त स्वरूप को उजागर करता है।
  • उनका शरीर किसी भौतिक रूप तक सीमित नहीं है, बल्कि वह समस्त सृष्टि में मौजूद हैं।
  • उनकी यह उपस्थिति सब जगह अनुभव की जा सकती है, चाहे वह किसी के हाथ, पैर, आंख, या अन्य अंगों के रूप में हो।

2. सभी में समान रूप से व्याप्त:

  • परमात्मा सभी जीवों में समान रूप से निवास करते हैं।
  • यह विचार वेदों के “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” (सभी कुछ ब्रह्म है) के सिद्धांत के समान है।

3. सर्वव्यापक ईश्वर:

  • परमात्मा का यह स्वरूप यह बताता है कि वह केवल साकार रूप में नहीं, बल्कि निराकार और असीम रूप में भी विद्यमान हैं।
  • उदाहरण: सूर्य की किरणें हर जगह फैलती हैं, लेकिन उनका स्रोत सूर्य ही है। इसी प्रकार, परमात्मा की शक्ति हर जगह महसूस की जा सकती है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

  1. सर्वत्र उपस्थित ईश्वर:
    • यह समझाने का प्रयास है कि ईश्वर केवल मंदिर, पूजा स्थल, या किसी विशेष स्थान पर सीमित नहीं हैं।
    • वह हर जगह है – हमारे कार्यों, विचारों, और भावनाओं में।
  2. अनुभव के द्वारा ज्ञान:
    • इस श्लोक को समझने के लिए केवल तर्क या विचार नहीं, बल्कि ईश्वर की सर्वव्यापकता का अनुभव करना आवश्यक है।
    • ध्यान, भक्ति और आत्मज्ञान इस अनुभव के माध्यम बनते हैं।

उदाहरण:

  1. सूर्य की किरणें:
    जैसे सूर्य हर जगह अपनी किरणों के माध्यम से उपस्थित है, वैसे ही परमात्मा भी अपने गुणों और शक्तियों के माध्यम से हर जगह विद्यमान हैं।
  2. वायु:
    वायु हर जगह है, लेकिन इसे प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा जा सकता। उसी प्रकार, ईश्वर की सर्वव्यापकता को अनुभव किया जा सकता है।

समकालीन दृष्टिकोण:

  1. सभी में ईश्वर का दर्शन:
    • यह विचार व्यक्ति को यह सिखाता है कि हर जीव में ईश्वर का अंश है।
    • इससे अहिंसा, करुणा और समानता की भावना प्रबल होती है।
  2. कार्य और ईश्वर:
    • जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि ईश्वर हर जगह उपस्थित है, तो वह अपने कार्यों में सच्चाई और समर्पण लाता है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता और असीमता को व्यक्त करता है।

  • ईश्वर हर स्थान और हर जीव में निवास करते हैं।
  • इस ज्ञान से व्यक्ति में करुणा, सहिष्णुता और आध्यात्मिक दृष्टि का विकास होता है।
    यह श्लोक यह संदेश देता है कि ईश्वर को किसी विशेष स्थान में सीमित न मानकर हर जगह अनुभव करना चाहिए।

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् |
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च || 15 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 15वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने परमात्मा के अद्वितीय और विरोधाभासी स्वरूप को समझाया है। इस श्लोक में परमात्मा के गुणों का वर्णन किया गया है, जो एक साधारण व्यक्ति की समझ से परे हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:


श्लोक का अर्थ:

  1. सर्वेन्द्रियगुणाभासम्
    • “जो सभी इंद्रियों के गुणों का प्रकाशन करता है।”
    • परमात्मा सभी इंद्रियों (देखना, सुनना, सूंघना, आदि) के अनुभवों को संभव बनाता है, यानी सभी इंद्रियों का आधार है।
  2. सर्वेन्द्रियविवर्जितम्
    • “लेकिन स्वयं इंद्रियों से रहित है।”
    • हालांकि परमात्मा इंद्रियों के कार्यों को संचालित करता है, लेकिन वह स्वयं इंद्रियों के बंधन में नहीं है।
  3. असक्तम्
    • “जो असक्त (असंबद्ध) है।”
    • परमात्मा किसी भी वस्तु या कार्य में बंधा हुआ नहीं है। वह सृष्टि का संचालन करता है, लेकिन किसी भी परिणाम में उसकी आसक्ति नहीं होती।
  4. सर्वभृत् च एव
    • “जो सबको धारण करता है।”
    • परमात्मा समस्त सृष्टि का पालन-पोषण करता है और इसे संतुलित रखता है।
  5. निर्गुणम्
    • “जो निर्गुण (गुणों से परे) है।”
    • परमात्मा का स्वरूप तीन गुणों (सत्त्व, रजस, और तमस) से परे है।
  6. गुणभोक्तृ च
    • “और फिर भी गुणों का भोक्ता है।”
    • यद्यपि वह गुणों से परे है, लेकिन उन्हीं गुणों के माध्यम से सृष्टि का अनुभव और संचालन करता है।

स्पष्ट व्याख्या:

1. सर्वेन्द्रियगुणाभासम् और सर्वेन्द्रियविवर्जितम्:

  • परमात्मा इंद्रियों से रहित होते हुए भी इंद्रियों के कार्यों का आधार है।
  • उदाहरण: सूर्य अपनी रोशनी से आंखों को देखने की क्षमता देता है, लेकिन स्वयं आंखों का उपयोग नहीं करता।

2. असक्तम् और सर्वभृत् च:

  • परमात्मा सृष्टि के हर कार्य में समाहित है लेकिन किसी से बंधा नहीं है।
  • वह एक द्रष्टा (साक्षी) के रूप में सभी का पालन करता है, लेकिन किसी भी परिणाम या कार्य में उसका व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है।

3. निर्गुणम् और गुणभोक्तृ च:

  • परमात्मा निर्गुण (गुणों से परे) है क्योंकि वह किसी भी भौतिक गुण से प्रभावित नहीं होता।
  • फिर भी, वह सृष्टि के गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के माध्यम से कार्य करता है।
  • यह परमात्मा के साकार और निराकार दोनों स्वरूपों को दर्शाता है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

  1. परमात्मा का विरोधाभासी स्वरूप:
    • यह श्लोक बताता है कि परमात्मा का स्वरूप हमारी साधारण बुद्धि से परे है।
    • वह इंद्रियों का आधार होते हुए भी इंद्रियों से रहित है।
    • वह गुणों का भोक्ता होते हुए भी गुणों से परे है।
  2. असक्ति:
    • परमात्मा का असक्त स्वरूप यह सिखाता है कि हमें भी अपने कर्मों को बिना आसक्ति के करना चाहिए।
    • यह गीता के कर्म योग का संदेश है।

उदाहरण:

  1. सूर्य और उसकी किरणें:
    सूर्य स्वयं असक्त होते हुए भी अपनी किरणों से जीवन प्रदान करता है। वह निर्गुण है, लेकिन उसके प्रकाश के गुणों से सृष्टि का संचालन होता है।
  2. समुद्र और उसकी लहरें:
    समुद्र स्वयं स्थिर और शांत है, लेकिन लहरें उसकी शक्ति को प्रकट करती हैं।

समकालीन संदर्भ:

  1. ईश्वर की सर्वव्यापकता:
    • परमात्मा का यह स्वरूप हमें यह समझाता है कि वह हर जगह विद्यमान है और सब कुछ देखता-सुनता है।
    • इससे हमें अपने कार्यों में सत्यनिष्ठा और ईमानदारी अपनाने की प्रेरणा मिलती है।
  2. असक्ति का सिद्धांत:
    • आज के जीवन में जब हम अपने कार्यों में अत्यधिक आसक्त हो जाते हैं, तो यह श्लोक हमें सिखाता है कि सच्चा सुख बिना आसक्ति के कार्य करने में है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता, निर्लेपता, और उनके अद्वितीय स्वरूप को दर्शाता है।

  • वह इंद्रियों और गुणों का आधार है लेकिन स्वयं उनसे परे है।
  • यह ज्ञान हमें न केवल ईश्वर को समझने, बल्कि अपने जीवन को संतुलित और शांतिपूर्ण बनाने की प्रेरणा देता है।
    गीता का यह श्लोक अद्वैत वेदांत और कर्म योग का गूढ़ संदेश देता है।

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च |
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् || 16 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 16वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने परमात्मा के व्यापक और गूढ़ स्वरूप का वर्णन किया है। यह श्लोक ईश्वर के सर्वव्यापी और सूक्ष्म स्वभाव को समझाने का प्रयास करता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:


श्लोक का अर्थ:

  1. बहिरन्तः च भूतानाम्
    • “जो सभी प्राणियों के बाहर और भीतर दोनों है।”
    • परमात्मा हर जीव के अंदर आत्मा के रूप में निवास करता है और बाहरी सृष्टि के रूप में भी प्रकट होता है।
  2. अचरं चरमेव च
    • “जो स्थिर और चलायमान दोनों है।”
    • परमात्मा स्थिर प्रकृति (जैसे पर्वत) और चलायमान प्राणी (जैसे जीव-जंतु) दोनों में विद्यमान है।
  3. सूक्ष्मत्वात् तदविज्ञेयं
    • “जो अपनी सूक्ष्मता के कारण समझा नहीं जा सकता।”
    • परमात्मा इतना सूक्ष्म और सूक्ष्मतर है कि उसे सामान्य इंद्रियों या बुद्धि से जाना नहीं जा सकता।
  4. दूरस्थं च अन्तिके च तत्
    • “वह दूर भी है और निकट भी।”
    • परमात्मा उन लोगों के लिए दूर है, जो अज्ञान में रहते हैं, और निकट है, जो ज्ञान और भक्ति में लीन हैं।

स्पष्ट व्याख्या:

1. बाहरी और भीतरी उपस्थिति:

  • परमात्मा का स्वरूप सृष्टि के हर तत्व में व्याप्त है।
  • वह न केवल भौतिक जगत की हर वस्तु में है, बल्कि हर जीव के भीतर भी आत्मा के रूप में निवास करता है।
  • उदाहरण: जैसे जल हर तरल के भीतर भी है और नदी, झील, या समुद्र के रूप में बाहर भी।

2. चलायमान और अचल स्वरूप:

  • परमात्मा स्थिर तत्वों (जैसे पृथ्वी, आकाश) में भी हैं और गतिशील तत्वों (जैसे हवा, जल) में भी।
  • यह उनकी सर्वव्यापकता का प्रतीक है।

3. सूक्ष्मता के कारण अगम्य:

  • परमात्मा का स्वरूप इतना सूक्ष्म और अदृश्य है कि इसे इंद्रियों और भौतिक साधनों से समझा नहीं जा सकता।
  • इसे केवल ध्यान, भक्ति और आत्मज्ञान के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है।
  • उदाहरण: वायु को हम देख नहीं सकते, लेकिन उसका अनुभव कर सकते हैं।

4. दूर और निकट:

  • जो लोग भौतिकता और अज्ञान में डूबे रहते हैं, उनके लिए परमात्मा एक रहस्य और दूरस्थ है।
  • जो भक्ति, ध्यान, और ज्ञान के माध्यम से उसकी खोज करते हैं, उनके लिए परमात्मा हर क्षण निकट है।
  • उदाहरण: सूरज पृथ्वी से दूर है, लेकिन उसकी किरणें हमें हर जगह महसूस होती हैं।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

  1. परमात्मा की सर्वव्यापकता:
    • यह श्लोक ईश्वर की सर्वव्यापकता और सार्वभौमिकता पर बल देता है।
    • वह हर जगह और हर चीज में है, लेकिन अपनी सूक्ष्मता के कारण उसकी अनुभूति कठिन है।
  2. दूर और निकट का विचार:
    • यह विचार सिखाता है कि ईश्वर हमारे अंदर ही है।
    • उसे केवल बाहरी दुनिया में खोजना ही पर्याप्त नहीं है; आत्मा में उसकी खोज करना आवश्यक है।
  3. सूक्ष्मता का महत्व:
    • यह श्लोक हमें यह समझाता है कि ईश्वर का अनुभव करने के लिए हमें अपनी चेतना को सूक्ष्म करना होगा।
    • बाहरी शोर और विकारों से मुक्त होकर ही ईश्वर की उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है।

उदाहरण:

  1. विद्युत की उपस्थिति:
    • बिजली हर जगह है, लेकिन हम इसे तभी अनुभव कर सकते हैं, जब वह उपकरणों के माध्यम से प्रकट होती है।
  2. वायु और सुगंध:
    • वायु हर जगह है, और उसमें समाहित सुगंध भी है, लेकिन इसे केवल अनुभव किया जा सकता है।

समकालीन दृष्टिकोण:

  1. अध्यात्म और विज्ञान का संबंध:
    • यह श्लोक आज के युग में अध्यात्म और विज्ञान के बीच संबंध स्थापित करता है।
    • विज्ञान भी यह मानता है कि ऊर्जा हर जगह है, लेकिन उसे अनुभव करने के लिए विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है।
  2. आंतरिक शांति का महत्व:
    • आज के समय में बाहरी शोर और तनाव से घिरे हुए व्यक्ति को यह श्लोक सिखाता है कि सच्चा ईश्वर अनुभव भीतर की शांति से होता है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता, सूक्ष्मता, और विरोधाभासी प्रकृति को दर्शाता है।

  • वह हर चीज में विद्यमान है, स्थिर और गतिशील दोनों है, और सूक्ष्मता के कारण अनुभव से परे है।
  • लेकिन भक्ति, ध्यान, और आत्मज्ञान के माध्यम से उसे महसूस किया जा सकता है।
    यह श्लोक सिखाता है कि ईश्वर को जानने के लिए बाहरी खोज नहीं, बल्कि आंतरिक अनुभव आवश्यक है।

अविभक्तं च भूतिषु विभक्तमिव च स्थितम् |
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च || 17 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 17वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा के अद्वितीय और सर्वव्यापक स्वरूप को समझाते हैं। इस श्लोक में, परमात्मा के उन गुणों का वर्णन है जो उसे सृष्टि के प्रत्येक तत्व में उपस्थित और फिर भी अद्वितीय बनाते हैं।


श्लोक का अर्थ:

  1. अविभक्तं च भूतिषु
    • “जो सभी प्राणियों में अविभक्त (अखंड) रूप से विद्यमान है।”
    • इसका अर्थ है कि परमात्मा की उपस्थिति हर जगह समान रूप से है; वह किसी भी प्रकार से विभाजित नहीं होता।
  2. विभक्तमिव च स्थितम्
    • “और फिर भी विभक्त (विभाजन जैसा) प्रतीत होता है।”
    • हालांकि परमात्मा अविभाज्य है, फिर भी वह विभिन्न जीवों और वस्तुओं में अलग-अलग रूपों में प्रकट होता है।
  3. भूतभर्तृ च तत् ज्ञेयं
    • “जो सभी प्राणियों का भरण-पोषण करने वाला है, उसे जानना चाहिए।”
    • परमात्मा समस्त सृष्टि का आधार है और सभी जीवों का पालन करता है।
  4. ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च
    • “जो सब कुछ नष्ट करने वाला (ग्रसने वाला) और उत्पन्न करने वाला है।”
    • परमात्मा ही सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और विनाश का कारण है।

स्पष्ट व्याख्या:

1. अविभक्त और विभक्त का रहस्य:

  • परमात्मा सभी जीवों और वस्तुओं में एक समान रूप से विद्यमान हैं, फिर भी वह प्रत्येक में अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं।
  • उदाहरण: जैसे सूर्य का प्रकाश हर जगह समान रूप से फैलता है, लेकिन अलग-अलग पात्रों में वह विभिन्न तरीकों से अनुभव होता है।

2. भूतभर्ता (पालनकर्ता):

  • परमात्मा समस्त जीवों का पालन करता है। वह जीवन के लिए आवश्यक ऊर्जा, शक्ति और साधनों का स्रोत है।
  • उदाहरण: जैसे पृथ्वी सभी जीवों को आवश्यक संसाधन प्रदान करती है।

3. ग्रसिष्णु और प्रभविष्णु (नाश और सृजनकर्ता):

  • परमात्मा सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश दोनों का स्रोत है।
  • वह सृजन की प्रक्रिया में सक्रिय है, लेकिन अंततः वही विनाश का कारण बनता है।
  • उदाहरण: जैसे एक वृक्ष बीज से उत्पन्न होता है और अंततः नष्ट होकर फिर से मिट्टी में मिल जाता है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

  1. परमात्मा की अद्वितीयता:
    • यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता और अद्वितीयता को दर्शाता है।
    • वह अविभाज्य होते हुए भी जीवों में विभाजित रूप में दिखाई देता है।
  2. जीवन और मृत्यु का स्रोत:
    • परमात्मा सृष्टि के हर चरण – उत्पत्ति, पालन, और विनाश – का केंद्र है।
    • इस समझ से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि जीवन और मृत्यु दोनों ही परमात्मा की लीला हैं।
  3. एकता और विविधता:
    • यह श्लोक यह बताता है कि सभी जीव और वस्तुएं मूल रूप से एक ही स्रोत (परमात्मा) से आई हैं, लेकिन भौतिक जगत में वे भिन्न दिखती हैं।

उदाहरण:

  1. जल का स्वरूप:
    • पानी एक अविभाज्य तत्व है, लेकिन अलग-अलग नदियों, झीलों और सागर में यह विभक्त प्रतीत होता है।
  2. सूर्य और उसकी किरणें:
    • सूर्य एक ही है, लेकिन उसकी किरणें हर स्थान पर अलग-अलग रूप में अनुभव होती हैं।
  3. मिट्टी और उसके उत्पाद:
    • मिट्टी से ही सभी वस्तुएं उत्पन्न होती हैं (जैसे बर्तन), लेकिन वे अलग-अलग रूप में दिखती हैं।

समकालीन दृष्टिकोण:

  1. समानता की अवधारणा:
    • यह श्लोक सिखाता है कि सभी जीव और वस्तुएं मूल रूप से एक ही ईश्वर का हिस्सा हैं।
    • इससे मानवता में समानता और करुणा की भावना को बढ़ावा मिलता है।
  2. प्राकृतिक संतुलन:
    • परमात्मा का सृष्टि के सृजन और विनाश में हस्तक्षेप हमें प्रकृति के संतुलन को समझने में मदद करता है।
  3. अहंकार का त्याग:
    • जब हम यह समझते हैं कि परमात्मा ही सब कुछ संचालित करता है, तो अहंकार समाप्त हो जाता है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता और विरोधाभासी स्वभाव को समझाता है।

  • वह अविभाज्य होते हुए भी विभक्त दिखाई देता है।
  • वह सृष्टि का पालन करता है और उसे उत्पन्न एवं नष्ट भी करता है।
    यह ज्ञान हमें सिखाता है कि परमात्मा को समझने के लिए हमें भौतिक दृष्टिकोण से ऊपर उठकर आध्यात्मिक दृष्टि अपनानी चाहिए।

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते |
ज्ञानं ज्ञेयṁ ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् || 18 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 18वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा के स्वरूप को गहन रूप से समझाते हैं। परमात्मा को सभी प्रकार के प्रकाश और ज्ञान का स्रोत बताया गया है। इस श्लोक में उनका विवरण उनकी दिव्यता और सर्वव्यापकता को प्रकट करता है।


श्लोक का अर्थ:

  1. ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः
    • “वह (परमात्मा) सभी प्रकार के प्रकाशों का भी प्रकाश है।”
    • यहाँ परमात्मा को “सभी प्रकाश का स्रोत” कहा गया है। यह प्रकाश केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक प्रकाश भी है, जो अज्ञान (तम) को दूर करता है।
  2. तमसः परम् उच्यते
    • “जो अज्ञान के अंधकार से परे है।”
    • परमात्मा को अज्ञान और अंधकार से परे कहा गया है। वह अज्ञान को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है।
  3. ज्ञानं ज्ञेयम् ज्ञानगम्यम्
    • “जो स्वयं ज्ञान है, जिसे जानना चाहिए, और जिसे ज्ञान के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”
    • परमात्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है, वह जानने योग्य भी है, और उसे प्राप्त करने का साधन भी ज्ञान है।
  4. हृदि सर्वस्य विष्ठितम्
    • “जो सभी के हृदय में स्थित है।”
    • परमात्मा हर जीव के हृदय में निवास करता है। वह प्रत्येक जीव के भीतर उसकी आत्मा के रूप में विद्यमान है।

स्पष्ट व्याख्या:

1. ज्योतिषामपि तज्ज्योतिः (सर्वोच्च प्रकाश):

  • परमात्मा को सभी प्रकार के प्रकाश का स्रोत बताया गया है।
  • यह केवल सूर्य, चंद्रमा, और अग्नि जैसे भौतिक प्रकाश का संकेत नहीं है, बल्कि ज्ञान का आंतरिक प्रकाश भी है।
  • उदाहरण: जैसे सूर्य पृथ्वी को रोशन करता है, वैसे ही परमात्मा आत्मा को प्रकाशित करता है।

2. तमसः परम् (अज्ञान से परे):

  • अज्ञान का अर्थ है संसारिक मोह, भ्रम, और अंधकार।
  • परमात्मा इन सबसे परे है और उनकी उपस्थिति अज्ञान को समाप्त करती है।
  • जो व्यक्ति ईश्वर को पहचानता है, वह अज्ञान से मुक्त हो जाता है।

3. ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य:

  • ज्ञान: स्वयं परमात्मा का स्वरूप।
  • ज्ञेय: जिसे जानना चाहिए, अर्थात परमात्मा।
  • ज्ञानगम्य: परमात्मा को पाने का साधन ज्ञान ही है।
  • यह त्रिक ज्ञान की प्रक्रिया को दर्शाता है।

4. हृदि सर्वस्य विष्ठितम् (सभी के हृदय में स्थित):

  • परमात्मा केवल बाहरी संसार का संचालन नहीं करते, बल्कि प्रत्येक जीव के हृदय में निवास करते हैं।
  • उनका यह स्वरूप बताता है कि ईश्वर हर जीव के जीवन का मूल कारण है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

  1. परमात्मा का प्रकाशस्वरूप:
    • यह श्लोक सिखाता है कि परमात्मा ही वह शक्ति है, जो ज्ञान, सत्य, और चेतना का स्रोत है।
    • उनकी उपस्थिति अज्ञान और मोह को मिटाकर आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है।
  2. ज्ञान की महत्ता:
    • परमात्मा को पाने के लिए केवल भक्ति पर्याप्त नहीं है; उसके साथ ज्ञान भी आवश्यक है।
    • ज्ञान का अर्थ है सत्य को पहचानना और जीवन की वास्तविकता को समझना।
  3. अंतर्यामी स्वरूप:
    • ईश्वर को बाहर खोजने के बजाय, अपने हृदय में उनकी उपस्थिति को पहचानना महत्वपूर्ण है।

उदाहरण:

  1. सूर्य और प्रकाश:
    • जैसे सूर्य सभी प्रकाशों का स्रोत है, वैसे ही परमात्मा सभी ज्ञान और चेतना का स्रोत है।
  2. दीपक और अंधकार:
    • जैसे दीपक अंधकार को दूर करता है, वैसे ही परमात्मा का ज्ञान अज्ञान को समाप्त करता है।
  3. जीवों में निवास:
    • जैसे गंध फूल में होती है, वैसे ही परमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय में निवास करता है।

समकालीन संदर्भ:

  1. आध्यात्मिक जागरूकता:
    • यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन के अंधकार (तनाव, भ्रम, और मोह) को समाप्त करने के लिए ईश्वर का प्रकाश आवश्यक है।
  2. अंतरदृष्टि का महत्व:
    • आधुनिक समय में जब लोग बाहरी सुखों में ईश्वर को खोजते हैं, यह श्लोक बताता है कि ईश्वर हमारे भीतर ही हैं।
  3. ज्ञान की आवश्यकता:
    • भक्ति के साथ ज्ञान का महत्व इस श्लोक में स्पष्ट है। जीवन के सच्चे उद्देश्य को समझने के लिए ज्ञान आवश्यक है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक परमात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करता है:

  • वह ज्ञान, प्रकाश और चेतना का स्रोत है।
  • वह अज्ञान के अंधकार से परे है और सभी के हृदय में स्थित है।
    यह श्लोक हमें सिखाता है कि ईश्वर को पाने के लिए भक्ति, ज्ञान, और आत्मसाक्षात्कार आवश्यक है। उनकी उपस्थिति हर जीव के भीतर अनुभव की जा सकती है।

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः |
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते || 19 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 19वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने क्षेत्र (शरीर), ज्ञान और ज्ञेय (जानने योग्य) के बारे में संक्षेप में वर्णन करते हुए उनके महत्व को बताया है। इस श्लोक का सार यही है कि इन तत्वों को जानकर एक भक्त भगवान के स्वरूप (मद्भाव) को प्राप्त कर सकता है।


श्लोक का अर्थ:

  1. इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं च उक्‍तं समासतः
    • “इस प्रकार क्षेत्र (शरीर), ज्ञान, और ज्ञेय (जानने योग्य) का संक्षेप में वर्णन किया गया।”
    • भगवान श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (ज्ञेय) के स्वरूप को विस्तार से समझाया और ज्ञान को इन दोनों के बीच संबंध स्थापित करने का माध्यम बताया।
  2. मद्भक्त एतद्विज्ञाय
    • “मेरा भक्त इसे जानकर (इन सबका वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर)…”
    • यह ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं है; इसे अनुभव और आत्मज्ञान के माध्यम से प्राप्त किया जाता है।
  3. मद्भावाय उपपद्यते
    • “मेरे स्वरूप को प्राप्त करता है।”
    • इसका अर्थ है कि इस ज्ञान के द्वारा भक्त भगवान की दिव्य स्थिति (मद्भाव) को प्राप्त कर लेता है, अर्थात मोक्ष प्राप्त कर लेता है और भगवान के साथ एकात्मकता को अनुभव करता है।

स्पष्ट व्याख्या:

1. क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय का महत्व:

  • क्षेत्र (शरीर):
    शरीर को “क्षेत्र” कहा गया है, जो भौतिक जगत से संबंधित है और कर्म का स्थान है।
  • ज्ञान:
    शरीर (क्षेत्र) और आत्मा (ज्ञेय) के भेद को समझने की क्षमता को ज्ञान कहा गया है।
  • ज्ञेय (जानने योग्य):
    आत्मा और परमात्मा का वास्तविक स्वरूप, जिसे जानने से व्यक्ति अज्ञान से मुक्त हो जाता है।

2. भक्त का ज्ञान और अनुभव:

  • भक्त, इन तीनों की वास्तविकता को समझने के बाद, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के माध्यम से भगवान के स्वरूप को प्राप्त करता है।
  • यह केवल बौद्धिक ज्ञान नहीं है, बल्कि आत्मा के गहन अनुभव पर आधारित है।

3. मद्भाव की प्राप्ति:

  • “मद्भाव” का अर्थ है भगवान के स्वरूप को आत्मसात करना, जो आत्मा और परमात्मा के एकत्व को दर्शाता है।
  • यह अवस्था मोक्ष की ओर संकेत करती है, जहाँ जीवात्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

  1. ज्ञान का महत्व:
    • भगवान ने इस श्लोक में ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की महत्ता पर बल दिया है।
    • केवल बाहरी कर्मकांड या पूजा पर्याप्त नहीं है; सच्चा ज्ञान व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है।
  2. भक्ति और ज्ञान का सामंजस्य:
    • यहाँ भक्ति और ज्ञान का आदर्श संतुलन दिखाया गया है।
    • भक्त जब ज्ञान के माध्यम से क्षेत्र, ज्ञेय और ज्ञान को समझता है, तो वह भगवान के साथ सच्चा संबंध स्थापित करता है।
  3. मद्भाव:
    • यह श्लोक सिखाता है कि भगवान का स्वरूप समझने के लिए केवल बाहरी साधनों पर निर्भर न रहें, बल्कि अपनी आत्मा के भीतर गहराई से देखें।

उदाहरण:

  1. महर्षि जनक:
    • राजा जनक, जो ज्ञान और भक्ति दोनों के माध्यम से भगवान की प्राप्ति कर सके।
  2. मीरा बाई:
    • मीरा बाई ने भक्ति के साथ भगवान के स्वरूप को समझा और उसे अनुभव किया।
  3. आधुनिक संदर्भ:
    • योग और ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपनी आत्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त कर सकता है और ईश्वर को अनुभव कर सकता है।

समकालीन संदर्भ:

  1. आत्म-साक्षात्कार का महत्व:
    • आज के युग में, जब लोग बाहरी उपलब्धियों में उलझे हुए हैं, यह श्लोक आत्मा की ओर मुड़ने और सच्चे ज्ञान की खोज का महत्व बताता है।
  2. ज्ञान और भक्ति का संतुलन:
    • व्यक्ति को केवल भौतिक या बौद्धिक उपलब्धियों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए; भक्ति और आध्यात्मिक ज्ञान के माध्यम से अपने जीवन को संतुलित करना चाहिए।
  3. मोक्ष की प्राप्ति:
    • यह श्लोक बताता है कि जीवन का अंतिम उद्देश्य भगवान के साथ एकत्व प्राप्त करना है, जिसे भक्ति और ज्ञान दोनों के माध्यम से पाया जा सकता है।

निष्कर्ष:

यह श्लोक ज्ञान, भक्ति, और आत्म-साक्षात्कार के महत्व को दर्शाता है।

  • क्षेत्र (शरीर), ज्ञान, और ज्ञेय (आत्मा) को समझने के बाद, एक भक्त भगवान के दिव्य स्वरूप (मद्भाव) को प्राप्त कर सकता है।
  • यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक उपलब्धियाँ नहीं हैं, बल्कि परमात्मा के साथ एकात्मता की प्राप्ति है।
    गीता का यह श्लोक ज्ञान और भक्ति के माध्यम से आत्मोन्नति की प्रेरणा देता है।

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि |
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् || 20 ||

यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के 13वें अध्याय का 20वां श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकृति और पुरुष के अनादि स्वरूप का वर्णन किया है और यह बताया है कि विकार (परिवर्तन) और गुण (सत्त्व, रजस, तमस) प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। यह श्लोक सृष्टि की रचना, संचालन और उसके मूल तत्वों को समझने का एक माध्यम है।


श्लोक का अर्थ:

  1. प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धि अनादी उभावपि
    • “प्रकृति और पुरुष को जानो, दोनों ही अनादि (अजन्मा) हैं।”
    • प्रकृति (भौतिक ऊर्जा) और पुरुष (चेतना, आत्मा) दोनों का कोई आरंभ नहीं है। ये सृष्टि की मूलभूत इकाइयाँ हैं।
  2. विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्
    • “विकार (परिवर्तन) और गुण (सत्त्व, रजस, तमस) को प्रकृति से उत्पन्न जानो।”
    • सभी परिवर्तन (जैसे जन्म, मृत्यु, वृद्धि, हानि) और सभी गुण प्रकृति के कारण होते हैं।

स्पष्ट व्याख्या:

1. प्रकृति और पुरुष का स्वरूप:

  • प्रकृति (भौतिक जगत):
    • यह सृष्टि का वह भाग है, जो परिवर्तनशील है और जिसमें सृष्टि, संचालन, और विनाश होते हैं।
    • उदाहरण: पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश)।
  • पुरुष (आत्मा/चेतना):
    • यह अविनाशी, अचल और चेतन तत्त्व है। यह प्रकृति के साथ जुड़कर अनुभव करता है।
  • अनादि (अजन्मा):
    • प्रकृति और पुरुष दोनों का कोई आरंभ या अंत नहीं है।

2. विकार और गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं:

  • विकार (परिवर्तन):
    • सभी भौतिक परिवर्तन जैसे जन्म, मृत्यु, आयु, रोग आदि प्रकृति से होते हैं। आत्मा इनसे अछूती रहती है।
  • गुण (सत्त्व, रजस, तमस):
    • ये तीन गुण प्रकृति के आधारभूत गुण हैं:
      • सत्त्व: शुद्धता, ज्ञान, और शांति।
      • रजस: क्रियाशीलता, इच्छा, और बेचैनी।
      • तमस: अज्ञान, आलस्य, और निष्क्रियता।
  • प्रकृति की उत्पत्ति:
    • यह तीनों गुण सृष्टि में हर जीव और वस्तु के कार्य, स्वभाव, और अनुभव को निर्धारित करते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण:

  1. प्रकृति और पुरुष का संबंध:
    • प्रकृति और पुरुष के मिलन से ही यह संसार चल रहा है।
    • आत्मा (पुरुष) प्रकृति के साथ जुड़कर कर्मों और अनुभवों का भागी बनता है।
  2. विकार और गुण का प्रभाव:
    • विकार (जैसे क्रोध, लोभ) और गुण (सत्त्व, रजस, तमस) सभी मनुष्य के स्वभाव और क्रियाओं को प्रभावित करते हैं।
    • आध्यात्मिक प्रगति के लिए, सत्त्व गुण को बढ़ाना और रजस एवं तमस गुणों को संतुलित करना आवश्यक है।

उदाहरण:

  1. प्रकृति और पुरुष:
    • जैसे एक कार (प्रकृति) और चालक (पुरुष) मिलकर गाड़ी को चलाते हैं। कार बिना चालक के चल नहीं सकती, और चालक बिना कार के गति नहीं कर सकता।
  2. गुणों का प्रभाव:
    • सत्त्व गुण: जब मन शांत और स्थिर हो, व्यक्ति सही निर्णय लेता है।
    • रजस गुण: अत्यधिक इच्छाओं और बेचैनी से व्यक्ति अस्थिर हो जाता है।
    • तमस गुण: आलस्य और अज्ञान से व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है।

समकालीन संदर्भ:

  1. जीवन के निर्णयों में प्रकृति और गुणों का महत्व:
    • यह श्लोक सिखाता है कि हमें अपने गुणों को पहचानकर उनका प्रबंधन करना चाहिए।
    • सत्त्व गुण को बढ़ाने से जीवन में शांति और स्थिरता आती है।
  2. आत्मा और शरीर का भेद:
    • आत्मा (पुरुष) को पहचानने के लिए हमें प्रकृति (शरीर और इंद्रियों) के प्रभाव से ऊपर उठना होगा।
  3. परिवर्तन को स्वीकार करना:
    • यह श्लोक सिखाता है कि सभी भौतिक परिवर्तन प्रकृति का हिस्सा हैं। आत्मा इनसे प्रभावित नहीं होती।

निष्कर्ष:

यह श्लोक हमें प्रकृति और पुरुष के अनादि स्वरूप को समझने का मार्ग दिखाता है।

  • प्रकृति सभी भौतिक गुणों और परिवर्तनों की जननी है।
  • पुरुष (आत्मा) चेतन तत्त्व है, जो अविनाशी और अपरिवर्तनीय है।
    इस श्लोक से हमें यह सीख मिलती है कि अपने गुणों और विकारों को पहचानकर आत्मा के सच्चे स्वरूप को अनुभव करना ही आध्यात्मिक उन्नति का लक्ष्य है।

Srimad Bhagavadgita Chapter 13 श्लोक 21 – 35

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