Srimad Bhagavadgita अध्याय 13 श्लोक 1 to 10
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 1)
अर्जुन उवाच:
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
अर्जुन बोले:
हे केशव! मैं प्रकृति और पुरुष के बारे में, क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (शरीर का ज्ञाता, अर्थात आत्मा) के बारे में जानना चाहता हूँ। साथ ही मैं ज्ञान और ज्ञेय (जिसे जानना चाहिए) के विषय में भी जानना चाहता हूँ।
अर्थ:
इस श्लोक में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से चार महत्वपूर्ण तत्वों के बारे में जानने की इच्छा प्रकट कर रहे हैं:
- प्रकृति (Prakriti): वह भौतिक शक्ति जिससे यह संसार निर्मित होता है।
- पुरुष (Purusha): आत्मा या चेतन तत्व, जो प्रकृति से अलग है।
- क्षेत्र (Kshetra): शरीर, जिसमें जीव (आत्मा) रहता है।
- क्षेत्रज्ञ (Kshetrajna): वह जो क्षेत्र (शरीर) को जानता है, अर्थात आत्मा।
अर्जुन यह भी जानना चाहते हैं कि ज्ञान (सही समझ) क्या है और ज्ञेय (जिसे जानना चाहिए) का क्या स्वरूप है। इस प्रकार, यह श्लोक आध्यात्मिक ज्ञान के गहरे रहस्यों को समझने के लिए अर्जुन की जिज्ञासा को दर्शाता है।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 2)
श्रीभगवानुवाच:
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
हे कौन्तेय (अर्जुन)! यह शरीर “क्षेत्र” (खेत) कहलाता है। जो इसे जानता है, उसे “क्षेत्रज्ञ” (क्षेत्र का ज्ञाता) कहा जाता है, ऐसा जानने वाले कहते हैं।
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण शरीर और आत्मा के संबंध को स्पष्ट कर रहे हैं।
- शरीर (क्षेत्र):
शरीर को “क्षेत्र” (खेत) कहा गया है क्योंकि यह वह स्थान है जहाँ कर्मों का फल प्रकट होता है। जैसे खेत में बीज बोकर फसल उगाई जाती है, वैसे ही शरीर में कर्मों का प्रभाव प्रकट होता है। - क्षेत्रज्ञ (क्षेत्र का ज्ञाता):
क्षेत्रज्ञ वह चेतन तत्व (आत्मा) है जो शरीर (क्षेत्र) का अनुभव करता है और इसे समझता है।
इस श्लोक के माध्यम से भगवान अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा अमर है। आत्मा शरीर के कार्यों और अवस्थाओं का साक्षी है, लेकिन उससे अलग है।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 3)
श्रीभगवानुवाच:
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
हे भारत (अर्जुन)! सभी क्षेत्रों (शरीरों) में मुझे ही क्षेत्रज्ञ (ज्ञाता) के रूप में जानो। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरा मत में सच्चा ज्ञान है।
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान के उच्चतम सत्य को प्रकट कर रहे हैं:
- सर्वक्षेत्रेषु भगवान का क्षेत्रज्ञ रूप:
सभी जीवों के शरीरों में क्षेत्रज्ञ (ज्ञाता) के रूप में भगवान स्वयं विद्यमान हैं। यानी प्रत्येक आत्मा में परमात्मा का अंश है, जो चेतना और ज्ञान का स्रोत है। - सच्चा ज्ञान:
भगवान के अनुसार, सच्चा ज्ञान वह है जो क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के अंतर को समझता है और यह भी जानता है कि सभी आत्माओं में परमात्मा (सर्वज्ञ क्षेत्रज्ञ) के रूप में भगवान विद्यमान हैं।
इस श्लोक का संदेश है कि शरीर (भौतिक) और आत्मा (अभौतिक) के संबंध को समझकर, परमात्मा के साथ अपनी एकता का अनुभव करना ही सही ज्ञान है। यह भक्ति, ध्यान और ज्ञान का संगम है।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 4)
श्रीभगवानुवाच:
तत् क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
जो क्षेत्र (शरीर) है, वह क्या है, कैसा है, उसके विकार (परिवर्तन) क्या हैं, वह किससे उत्पन्न हुआ है, और वह कौन है जो उसका प्रभुत्व करता है—यह सब मैं तुम्हें संक्षेप में बताता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को शरीर (क्षेत्र) और उससे संबंधित गहन सत्य को समझाने का संकेत देते हैं:
- क्षेत्र (शरीर) का स्वरूप:
शरीर का वास्तविक स्वरूप क्या है, यह जानने योग्य है। - क्षेत्र के गुण:
यह शरीर कैसे कार्य करता है, इसमें कौन-कौन से गुण (स्वभाव) और विकार (परिवर्तन) होते हैं। - उत्पत्ति और प्रभुत्व:
शरीर किससे उत्पन्न हुआ है और इसे कौन संचालित करता है (परमात्मा और आत्मा का इसमें क्या स्थान है)।
भगवान यहाँ अर्जुन को यह समझने के लिए प्रेरित कर रहे हैं कि शरीर, आत्मा, और परमात्मा के बीच का संबंध क्या है। यह श्लोक आत्मा-परमात्मा के विज्ञान का संक्षिप्त परिचय है, जिसे भगवान आगे विस्तार से समझाने वाले हैं।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 5)
श्रीभगवानुवाच:
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
यह (क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान) ऋषियों द्वारा कई प्रकार से गाया गया है, विभिन्न वेदों के छंदों में वर्णित है, और ब्रह्मसूत्र के तर्कसंगत एवं निश्चयात्मक वचनों में भी विस्तार से समझाया गया है।
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण यह बताना चाहते हैं कि आत्मा, शरीर और परमात्मा के ज्ञान का स्रोत केवल उनका उपदेश नहीं है; इसे प्राचीन शास्त्रों में भी स्पष्ट किया गया है:
- ऋषियों की वाणी:
अनेक ऋषियों ने इस ज्ञान को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट किया है, जो उपनिषदों और स्मृतियों में मिलता है। - वेदों के छंद:
इस विषय को वेदों में विविध छंदों के माध्यम से गहराई से समझाया गया है। - ब्रह्मसूत्र:
ब्रह्मसूत्र, जो वेदांत दर्शन का सार है, इसमें भी इस ज्ञान को तार्किक और निश्चित रूप से प्रस्तुत किया गया है।
इस श्लोक का उद्देश्य यह समझाना है कि आत्मा-परमात्मा और शरीर का ज्ञान केवल व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित नहीं है, बल्कि यह ऋषियों, वेदों और दार्शनिक ग्रंथों की प्राचीन परंपरा में भी प्रमाणित है। इस प्रकार, यह ज्ञान शाश्वत और सार्वभौमिक है।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 6)
श्रीभगवानुवाच:
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
क्षेत्र (शरीर) में पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (मूल प्रकृति), दस इंद्रियाँ और मन, तथा पाँच इंद्रियों के विषय (रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श) शामिल हैं।
अर्थ:
भगवान इस श्लोक में क्षेत्र (शरीर) के घटकों का वर्णन कर रहे हैं:
- पाँच महाभूत:
- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश—यह भौतिक तत्व शरीर के निर्माण के मूलभूत घटक हैं।
- अहंकार:
- “मैं” की भावना, जो व्यक्तित्व और पहचान का आधार है।
- बुद्धि:
- निर्णय लेने और सत्य-असत्य को पहचानने की शक्ति।
- अव्यक्त:
- प्रकृति का वह मूल रूप जो अदृश्य और अप्रकट है।
- दस इंद्रियाँ और मन:
- पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (श्रवण, त्वचा, दृष्टि, जिव्हा, नासिका) और पाँच कर्मेंद्रियाँ (हाथ, पैर, वाणी, जननेंद्रिय, और मल त्याग की इंद्रिय), और इनके साथ मन।
- पाँच इंद्रिय विषय:
- रूप (दृष्टि का विषय), रस (स्वाद का विषय), गंध (सुगंध का विषय), शब्द (ध्वनि का विषय), और स्पर्श।
संदेश:
भगवान बता रहे हैं कि यह शरीर (क्षेत्र) प्रकृति के भौतिक और सूक्ष्म तत्वों से निर्मित है। इन तत्वों को समझने से आत्मा और शरीर के बीच भेदभाव करना संभव होता है, जो आत्मज्ञान की दिशा में पहला कदम है।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 7)
श्रीभगवानुवाच:
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः।
एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
इच्छा (कामना), द्वेष (विरोध), सुख, दुःख, शरीर-संघात (शरीर और उसके अंगों का समूह), चेतना (जीवन शक्ति), और धृति (धैर्य)—यह सब क्षेत्र (शरीर) के विकार (गुण या अवस्थाएँ) हैं, जिन्हें संक्षेप में बताया गया है।
अर्थ:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण शरीर (क्षेत्र) और उसकी अवस्थाओं का विवरण दे रहे हैं:
- इच्छा (कामना):
किसी वस्तु या अनुभव को प्राप्त करने की प्रवृत्ति। - द्वेष (विरोध):
किसी वस्तु या अनुभव से बचने की प्रवृत्ति। - सुख:
अनुकूल परिस्थितियों से मिलने वाला आनंद। - दुःख:
प्रतिकूल परिस्थितियों से उत्पन्न पीड़ा। - संघात (शरीर का समूह):
शरीर और उसके विभिन्न अंगों का संगठन। - चेतना (जीवन शक्ति):
आत्मा की उपस्थिति से उत्पन्न जीवनी शक्ति। - धृति (धैर्य):
कठिन परिस्थितियों में स्थिरता और सहनशीलता बनाए रखने की क्षमता।
संदेश:
भगवान समझा रहे हैं कि शरीर केवल भौतिक तत्वों का समूह नहीं है, बल्कि इसमें मन, भावना, और चेतना के विभिन्न आयाम भी शामिल हैं। यह विकार (अवस्थाएँ) शरीर और मन के कार्यों को संचालित करते हैं। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए इन अवस्थाओं को समझना और इनके प्रभावों से ऊपर उठना आवश्यक है।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 8)
श्रीभगवानुवाच:
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
अहंकार का अभाव (अमानित्व), दिखावे का त्याग (अदंभित्व), अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, शुद्धता, स्थिरता, और आत्म-नियंत्रण—यह सब ज्ञान के लक्षण हैं।
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ उन गुणों को बता रहे हैं, जो सच्चे ज्ञान को प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं:
- अमानित्व (अहंकार का अभाव):
अपने अस्तित्व को बिना घमंड के स्वीकार करना। - अदंभित्व (दिखावे का त्याग):
किसी प्रकार का दिखावा या आडंबर न करना। - अहिंसा:
शारीरिक, वाणी और मन से किसी को कष्ट न पहुँचाना। - क्षमा (क्षांति):
दूसरों के दोषों को सहन करना और क्षमाशील होना। - सरलता (आर्जव):
ईमानदारी और सीधा-सादा स्वभाव। - आचार्योपासनं (गुरु की सेवा):
अपने गुरु का आदर करना और उनसे शिक्षा ग्रहण करना। - शुद्धता (शौच):
आंतरिक और बाहरी स्वच्छता। - स्थैर्य (धैर्य):
मन और शरीर में स्थिरता और दृढ़ता। - आत्मविनिग्रह (आत्म-नियंत्रण):
अपनी इंद्रियों और मन को नियंत्रित करना।
संदेश:
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में ज्ञान के लिए आवश्यक गुणों को विस्तार से बता रहे हैं। ये गुण आत्मा को शुद्ध करने और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए अत्यावश्यक हैं। यह श्लोक आध्यात्मिक विकास की दिशा में जीवन को सही मार्ग पर चलाने का संकेत देता है।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 9)
श्रीभगवानुवाच:
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
इंद्रिय भोगों के प्रति वैराग्य, अहंकार का अभाव, और जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, और दुःख के दोषों का सतत् अवलोकन—यह सब ज्ञान के लक्षण हैं।
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक गुणों का वर्णन कर रहे हैं:
- इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम् (इंद्रिय भोगों के प्रति वैराग्य):
इंद्रियों के विषयों (रूप, रस, गंध, शब्द, और स्पर्श) के प्रति आसक्ति का त्याग करना। - अनहंकार (अहंकार का अभाव):
“मैं” और “मेरा” की भावना को छोड़कर विनम्रता अपनाना। - जन्म-मृत्यु-जराव्याधि-दुःख-दोष का अवलोकन:
जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और रोग से जुड़े कष्टों को समझना और यह देखना कि ये सभी भौतिक जीवन के दोष हैं।
संदेश:
भगवान समझा रहे हैं कि सच्चे ज्ञान के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति इंद्रिय सुखों के प्रति अपनी आसक्ति को छोड़े और अहंकार से मुक्त हो। इसके साथ ही, जीवन की अस्थिरता और जन्म-मृत्यु के चक्र के कष्टों का विवेकपूर्वक अवलोकन करना चाहिए। यह समझ आत्मा की शाश्वतता और मोक्ष की ओर मार्गदर्शन करती है।
श्लोक (भगवद्गीता, अध्याय 13, श्लोक 10)
श्रीभगवानुवाच:
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।
हिंदी अनुवाद और अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण बोले:
पुत्र, पत्नी, घर आदि में आसक्ति का त्याग, और प्रिय (इष्ट) या अप्रिय (अनिष्ट) परिस्थितियों की प्राप्ति में सदैव समचित्त रहना—यह सब ज्ञान के लक्षण हैं।
अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में व्यक्ति के मन और भावनाओं पर नियंत्रण के महत्व को बता रहे हैं:
- असक्ति (आसक्ति का अभाव):
अपने परिवार और संपत्ति जैसे सांसारिक संबंधों में अत्यधिक लगाव से मुक्त रहना। - अनभिष्वङ्ग (अत्यधिक मोह का अभाव):
रिश्तों और भौतिक वस्तुओं के प्रति मोहग्रस्त न होना। - समचित्तत्व (समानता का भाव):
- सुखद (इष्ट) या दुखद (अनिष्ट) परिस्थितियों में मन का संतुलन बनाए रखना।
- जीवन की हर परिस्थिति को समान दृष्टि से देखना।
संदेश:
भगवान यहाँ समझा रहे हैं कि सच्चा ज्ञान तब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति सांसारिक चीजों से जुड़ाव छोड़कर, जीवन के उतार-चढ़ाव में मानसिक संतुलन बनाए रखता है। यह समभाव व्यक्ति को मोह और दुःख से मुक्त करता है और आध्यात्मिक शांति की ओर ले जाता है।