Srimad Bhagavadgita
अध्याय 16 श्लोक 1 to 10
अभयं सत्त्वसंशुद्धिज्ञानयोगव्यवस्थिति: ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥
यह श्लोक भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में आता है, जिसे “दैवासुर-संपद्विभाग योग” कहा गया है। महाभारत के युद्ध से पहले, अर्जुन अपनी दुविधाओं के चलते बार-बार भगवान श्रीकृष्ण से धर्म, कर्तव्य और जीवन-मूल्यों के बारे में प्रश्न करता था। इस अध्याय में श्रीकृष्ण दैवी और आसुरी गुणों का वर्णन करते हैं, ताकि अर्जुन जान सके कि मनुष्य को किन गुणों को विकसित करना चाहिए और किनसे बचना चाहिए। महाभारत की कथा में जिस समय यह संवाद हो रहा था, उसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने समझाया कि आत्म-विकास के लिए किन मूल्यों या गुणों को अपनाया जाना चाहिए। यह प्रसंग न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि समस्त मानवता के लिए एक मार्गदर्शक बन गया।
श्लोक का अर्थ समझने के लिए सबसे पहले इसमें आए शब्दों को सरल हिंदी में जाना जा सकता है। अभय का अर्थ है निडरता या भय-रहित होना। सत्त्वसंशुद्धि से आशय है मन और हृदय की पूर्ण निर्मलता, यानी विचारों में निष्कपटता। ज्ञानयोगव्यवस्थिति का मतलब है अध्यात्मिक ज्ञान के मार्ग पर स्थिर होना और उसके अनुरूप जीवन जीना। दान का अर्थ है उदारता या जरूरतमंदों की सहायता करते समय निःस्वार्थ भाव रखना। दम शब्द से आशय इंद्रियों पर नियंत्रण से है, यानी मन और इंद्रियों की अनुशासनबद्धता। यज्ञ का मतलब केवल अग्निहोत्र या अनुष्ठान नहीं, बल्कि हर कर्म को समर्पण-भाव से करना भी है। स्वाध्याय उस सतत अभ्यास का नाम है जिसमें हम वेद-उपनिषद और धर्मग्रंथों का अध्ययन करते हुए आत्म-परिवर्तन की ओर बढ़ते हैं। तप का अर्थ है संयम और अनुशासनपूर्वक आचरण, जिसमें शारीरिक या मानसिक अभ्यास के द्वारा आत्मशुद्धि का प्रयत्न हो। आर्जवम् शब्द बताता है कि सीधापन, निष्कपटता या सरलता जीवन में बहुत आवश्यक है, क्योंकि इससे व्यक्ति सत्य-निष्ठ रहता है और छल-कपट से दूर रहता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये सभी गुण दैवी संपद कहे जाते हैं और जो मनुष्य इनका अपने जीवन में विकास करता है, वह आगे चलकर आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त करता है। महाभारत के समय अर्जुन को जितना महत्व शत्रुओं के साथ युद्ध में विजयी होने का था, उससे भी अधिक महत्व इस बात का था कि वह भीतर से निर्भय, शुद्ध और सत्यनिष्ठ रहे। यही संदेश आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि बाहरी चुनौतियाँ कुछ भी हों, इन गुणों को धारण करने से जीवन सरल और कल्याणमय हो जाता है। भगवद्गीता का यही सार है कि वास्तविक धर्म और अध्यात्म केवल कर्मकांड तक सीमित नहीं रहते, बल्कि मन की दशा, चिंतन और व्यवहार में व्यक्त होते हैं।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥
यह श्लोक भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय का अंग है, जिसे दैवासुर-संपद्विभाग योग कहा जाता है। महाभारत के युद्ध से पहले अर्जुन युद्धभूमि में खड़ा होकर धर्म, कर्तव्य और जीवन-मूल्यों से जुड़ी गहरी उलझनों का सामना कर रहा था। भगवान श्रीकृष्ण उसे यह समझाने के लिए दैवी और आसुरी गुणों का वर्णन करते हैं, ताकि वह जान सके कि वास्तविक धर्म केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि भीतरी जीवन-मूल्यों के विकास में निहित है। जिस समय अर्जुन सत्य, अहिंसा और कर्तव्य की गहरी दुविधा से जूझ रहा था, उस समय कृष्ण ने उसे सिखाया कि सच्चा नायक वही होता है जो बाहरी शौर्य के साथ-साथ भीतर से भी उत्तम गुणों को धारण करे। इसी संदर्भ में यह श्लोक दैवी गुणों को दर्शाता है, ताकि मानव अपने भीतर पवित्रता और सद्भाव ला सके।
अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी को शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक रूप से कष्ट न पहुँचाना। सत्यम सत्य के मार्ग पर चलने और बात-व्यवहार में सच्चाई रखने की शिक्षा देता है। अक्रोध का मतलब है क्रोध पर काबू रखते हुए मन में शांति और धैर्य बनाए रखना। त्याग कहता है कि जीवन में जिन चीज़ों की हमें आसक्ति है, उनसे मुक्त होकर, स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्म करना चाहिए। शान्ति का भाव भीतर से उद्वेगों को शांत करना और दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण व्यवहार रखना है। अपैशुनम् का अर्थ है परनिन्दा से बचना या दूसरों में कमियाँ न ढूँढना, बल्कि अपने दोषों को सुधारते हुए सकारात्मकता फैलाना। दया भूतेषु का आशय है सभी प्राणियों के प्रति करुणा, उदारता और संवेदनशीलता रखना। अलोलुप्त्वं बताता है कि लोभ और लालच से मुक्त रहकर, संतुष्ट भाव से जीवन जीया जाए। मार्दवम् का अर्थ है कोमलता या विनम्रता, जिससे मनुष्य कठोर वचन या कठोर व्यवहार से बचे। ह्रीरचापलम् में ह्री का भाव है संकोचपूर्ण लज्जा या मर्यादा-बोध, जो व्यक्ति को अनुचित कार्यों से रोके रखती है, और अचापलम् का मतलब है चंचलता से दूर रहना या मन को स्थिर रखकर विचार और कर्म करना।
इन सभी गुणों को अपनाकर मनुष्य न सिर्फ़ आत्मिक उन्नति कर सकता है, बल्कि समाज और परिवार में भी सौहार्द और सद्भाव ला सकता है। भगवद्गीता बताती है कि दैवी संपदा का अर्थ ही यही है कि व्यक्ति भीतरी और बाहरी दोनों स्तरों पर प्रेम, शांति, करुणा और सत्यनिष्ठा का मार्ग चुने। इसी के माध्यम से अर्जुन—and वास्तव में हर seeker—अपने धर्म और कर्तव्य का पालन करते हुए जीवन की गहरी अर्थवत्ता और ईश्वरीय कृपा का अनुभव कर सकता है।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥
यह श्लोक भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय “दैवासुर-संपद्विभाग योग” से लिया गया है। महाभारत के व्यापक प्रसंग में, जहाँ अर्जुन युद्धभूमि में नैतिक व आध्यात्मिक उलझनों से जूझ रहा था, भगवान श्रीकृष्ण ने दैवी और आसुरी गुणों का विस्तार से वर्णन किया। इस अध्याय में श्रीकृष्ण समझाते हैं कि मनुष्य के जीवन को दो तरह की प्रवृत्तियाँ आकार देती हैं: एक ओर दैवी गुण हैं, जो आत्मिक विकास और सदाचार की ओर ले जाते हैं, तो दूसरी ओर आसुरी गुण हैं, जो मनुष्य को अहंकार, क्रोध और स्वार्थ की ओर धकेलते हैं। अर्जुन को इन गुणों की पहचान इसलिए करवाई जा रही थी, ताकि वह समझ सके कि धर्म का मर्म केवल बाहरी रीतियों में नहीं, बल्कि भीतरी गुणों के विकास में है। महाभारत के युद्ध से पहले यह मार्गदर्शन आवश्यक था, क्योंकि शरीर से वीर होने के साथ-साथ मन और हृदय से भी विकसित होना जरूरी है। इसी संदर्भ में कृष्ण ने दैवी गुणों का वर्णन करते हुए यह श्लोक कहा।
श्लोक के सरल हिंदी अर्थ में तेज से आशय उस आभा या ओज से है जो सत्यनिष्ठ जीवन जीने से मनुष्य में प्रकट होती है। क्षमा का अर्थ है दूसरों की गलतियों को उदार हृदय से सहन कर पाना और उन्हें क्षमा करना। धृति का मतलब है धैर्य और संकल्प की दृढ़ता, जिसमें हम विरोध या कठिनाइयों में भी अपने धर्म-पथ पर टिके रहते हैं। शौचम से तात्पर्य है भीतरी और बाहरी पवित्रता; केवल शरीर और वातावरण को ही नहीं, बल्कि मन और विचारों को भी स्वच्छ रखना। अद्रोह का अर्थ है वैर-भाव या द्वेष से दूर रहना; मन में किसी के प्रति हिंसा या दुर्भावना न रखना। नातिमानिता से आशय है अभिमान या अहंकार का अभाव, अर्थात् अपनी क्षमताओं को जानते हुए भी विनम्र बने रहना। इन सब गुणों को मिलाकर जो स्वरूप बनता है, उसे दैवी संपद कहते हैं, और जिसने इन्हें अपने जीवन में धारण कर लिया, उसके लिए आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग सहज हो जाता है। इसीलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि ऐसे दैवी गुण सिर्फ़ आदर्शों की बातें नहीं हैं, बल्कि उन्हें अपने जीवन में लाकर व्यक्ति परमधर्म और मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सकता है। भगवद्गीता का संदेश यही है कि जब मनुष्य सत्य, अहिंसा, करुणा और क्षमा जैसे गुणों को जीवन में उतारता है, तब उसका चित्त निर्मल रहता है और वह स्वयं को तथा समाज को समुन्नत करने में समर्थ हो जाता है।
दम्भो दर्पोडभिमानश्चव क्रोध: पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्॥
यह श्लोक भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय “दैवासुर-संपद्विभाग योग” से लिया गया है। महाभारत के युद्धभूमि पर अर्जुन अपने कर्तव्य और जीवन के गूढ़ प्रश्नों से जूझ रहे थे। इस संदर्भ में, भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मानव स्वभाव के दैवी और आसुरी गुणों के बारे में विस्तार से बताया। श्लोक में वे आसुरी संपदा के गुणों का वर्णन कर रहे हैं, जो मनुष्य को अधोगति की ओर ले जाती हैं और आत्मिक विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं। इस अध्याय का उद्देश्य अर्जुन को यह समझाना था कि किन गुणों को त्यागकर वे अपने धर्म और कर्तव्य को सही रूप में निभा सकते हैं।
श्लोक का सरल हिंदी में अर्थ समझते हैं:
दम्भः – अत्यधिक घमंड या अहंकार
दर्पः – घमंड या अत्यधिक आत्मविश्वास
उडभिमानश्च – अति आत्मगौरव और स्वाभिमान
क्रोधः – अत्यधिक गुस्सा
पारुष्यमेव च – अधिक कठोरता या कठोर स्वभाव
अज्ञानं चाभिजातस्य – अज्ञानता से उत्पन्न
पार्थ – अर्जुन को संबोधित करते हुए
सम्पदमासुरीम् – आसुरी संपदा या दैवी संपदा के विपरीत गुण
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि दम्भ, दर्प, उडभिमान, क्रोध, पारुष्यम, और अज्ञान ऐसे गुण हैं जो असुरी या दैवी नहीं बल्कि आसुरी संपदा से संबंधित हैं। ये गुण मनुष्य के अंदर नकारात्मक भावनाओं और प्रवृत्तियों को जन्म देते हैं, जो उसे नैतिक और आध्यात्मिक रूप से पतन की ओर ले जाती हैं।
दम्भ और दर्प व्यक्ति में अति आत्मगौरव और अहंकार पैदा करते हैं, जिससे वह दूसरों के प्रति उदासीन हो जाता है और समाज में सहयोग की भावना कम हो जाती है। क्रोध मनुष्य को नियंत्रित नहीं रहने देता, जिससे उसके निर्णयों में तर्क और समझ की जगह भावनाएँ हावी हो जाती हैं। पारुष्यम व्यक्ति को कठोर और बेरहम बना देता है, जिससे वह दूसरों के साथ सहानुभूति और करुणा नहीं दिखा पाता। अज्ञान सबसे बड़ा विकार है क्योंकि यह व्यक्ति को सही और गलत में अंतर करने में असमर्थ बना देता है, जिससे वह अपने कर्मों के परिणामों को नहीं समझ पाता और अधर्म की ओर अग्रसर हो जाता है।
भगवद्गीता में इस प्रकार के आसुरी गुणों का वर्णन करके भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को चेतावनी दे रहे हैं कि इन गुणों से ग्रस्त व्यक्ति न केवल अपने जीवन में बल्कि समाज में भी विनाशकारी प्रभाव डालता है। वे अर्जुन को प्रेरित कर रहे हैं कि वह इन नकारात्मक गुणों को त्यागकर दैवी गुणों को अपनाए, ताकि वह अपने कर्तव्य का पालन सही ढंग से कर सके और आत्मिक उन्नति प्राप्त कर सके।
इस श्लोक में निहित दार्शनिक और आध्यात्मिक संदेश यह है कि व्यक्ति को अपने भीतर नकारात्मक गुणों को पहचानकर उन्हें छोड़ना चाहिए और सकारात्मक गुणों को विकसित करना चाहिए। ऐसा करने से न केवल व्यक्ति का आत्म-विकास होता है, बल्कि समाज में भी शांति और समरसता बनी रहती है। आज के युग में, जहाँ मानवीय संबंध जटिल होते जा रहे हैं और व्यक्तिगत अहंकार समाज में तनाव पैदा कर रहा है, यह श्लोक अत्यंत प्रासंगिक है। यह हमें सिखाता है कि विनम्रता, सहानुभूति, और ज्ञान के मार्ग पर चलकर हम अपने और समाज के कल्याण के लिए काम कर सकते हैं।
भगवद्गीता के कई प्रमुख भाष्यकारों ने इस श्लोक पर गहराई से प्रकाश डाला है। आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, और अन्य वैदिक विद्वानों ने इसे नैतिक शिक्षा के रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन में संतुलन और सद्गुणों का विकास कर सके। यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए मार्गदर्शक है जो अपने जीवन में सही और गलत का अंतर समझकर धर्म और अधर्म के बीच सही चुनाव करना चाहता है।
दैवी सम्पत्तिमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥
इस श्लोक का गहन विश्लेषण करने से पहले, इसे सही रूप में समझना आवश्यक है। यह श्लोक भगवद्गीता के 16वें अध्याय “दैवासुर-संपद्विभाग योग” से लिया गया है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को दैवी (दैवीय) और आसुरी (असुरीय) गुणों के बारे में विस्तृत रूप से बताते हैं।
प्रसंग (Context)
महाभारत के भीषण युद्ध के क्षणों में, अर्जुन ने अपने कर्तव्य, धर्म और जीवन के गूढ़ प्रश्नों के साथ संघर्ष किया। इस संघर्ष के दौरान, भगवान श्रीकृष्ण ने उसे समझाने के लिए दैवी और आसुरी गुणों का विवरण दिया, ताकि अर्जुन जान सके कि किन गुणों को अपनाकर वह न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में सफलता प्राप्त कर सकता है, बल्कि आत्मिक मुक्ति की ओर भी अग्रसर हो सकता है। 16वां अध्याय इस दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।
श्लोक का अर्थ और भावार्थ (Meaning)
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से निर्देशित कर रहे हैं कि उसे किन प्रकार की गुणों की ओर आकर्षण नहीं होना चाहिए। आइए इसे सरल हिंदी में समझें:
दैवी सम्पत्तिमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
दैवी सम्पत्ति का अर्थ है दैवीय गुण, जो आत्मिक उन्नति और मुक्ति की ओर ले जाते हैं। मोक्षाय निबन्धायासुरी मता का मतलब है कि आसुरी गुण बंधनों की ओर ले जाते हैं, जो मोक्ष की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं। अर्थात, दैवीय गुण आत्म मुक्ति के लिए आवश्यक हैं, जबकि आसुरी गुण बंधनों और अधर्म की ओर ले जाते हैं।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥
मा शुचः सम्पदं का अर्थ है “दैवीय संपदा की इच्छा न रखना”। दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव का अर्थ है “तुम दैवीय जन्मे हो, पाण्डव”। अर्थात, अर्जुन से कहा जा रहा है कि वह दैवीय गुणों की ओर आकर्षित न हो, क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से दैवीय गुणों से परिपूर्ण है।
पूरा अर्थ:
“हे पाण्डव, तू मोक्ष की प्राप्ति और बंधनों से मुक्त होने के लिए दैवीय गुणों की इच्छा न रख, क्योंकि तू दैवीय जन्मे हो। आसुरी गुणों की ओर आकर्षित न हो, जो तुझे बंधनों में बांधते हैं और मोक्ष की राह में बाधा उत्पन्न करते हैं।”
दार्शनिक और आध्यात्मिक संदेश (Philosophical and Spiritual Teachings)
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जीवन में हमारे पास दो प्रकार के गुण होते हैं – दैवीय और आसुरीय। दैवीय गुण जैसे कि सत्य, अहिंसा, धैर्य, शौच, दया, आदि हमें आत्मिक उन्नति की ओर ले जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होते हैं। वहीं, आसुरीय गुण जैसे कि घमंड, क्रोध, लोभ, अहंकार, आदि हमें बंधनों में बांधते हैं और आत्म मुक्ति की राह में बाधा उत्पन्न करते हैं।
भगवद्गीता का यह संदेश आज के युग में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत के समय था। आधुनिक समाज में, जहाँ व्यक्ति अनेक प्रकार के दबावों और मानसिक संघर्षों का सामना करता है, यह श्लोक हमें यह याद दिलाता है कि हमें अपने अंदर के दैवीय गुणों को विकसित करना चाहिए और आसुरीय गुणों से दूर रहना चाहिए। इससे न केवल हमारा व्यक्तिगत विकास होता है, बल्कि हम समाज में भी सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।
आज के संदर्भ में श्लोक का महत्व:
आज के तेज गति वाले और प्रतिस्पर्धी जीवन में, लोग अक्सर बाहरी उपलब्धियों और भौतिक संपदा की ओर आकर्षित हो जाते हैं। लेकिन इस श्लोक का संदेश यही है कि सच्चा समृद्धि और मुक्ति बाहरी चीजों में नहीं, बल्कि हमारे भीतर के गुणों में निहित है। यदि हम सत्य, अहिंसा, धैर्य, शौच, और दया जैसे गुणों को अपने जीवन में अपनाते हैं, तो हम न केवल मानसिक शांति प्राप्त करते हैं, बल्कि समाज में भी एक सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
उदाहरण के तौर पर, एक व्यक्ति जो सच्चाई और ईमानदारी से अपना काम करता है, वह न केवल अपने पेशेवर जीवन में सफल होता है, बल्कि समाज में भी सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। इसी प्रकार, जो व्यक्ति दूसरों के प्रति दया और सहानुभूति रखता है, वह समाज में सौहार्द और मेलजोल को बढ़ावा देता है।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें यह प्रेरित करता है कि हम अपने जीवन में दैवीय गुणों को प्राथमिकता दें और आसुरीय गुणों से बचें, ताकि हम आत्मिक उन्नति के साथ-साथ समाज में भी सकारात्मक बदलाव ला सकें।
द्वौो भूतसर्गो लोकेउस्मिन्दैव आसुर एव च।
देवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रुणु॥
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को संसार में प्रकट होने वाले दो प्रकार के स्वभावों—दैवी और आसुरी—के बारे में अवगत करा रहे हैं। यह श्लोक भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय, जिसे “दैवासुर-संपद्विभाग योग” कहा जाता है, का हिस्सा है। इस अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन को उन गुणों के बारे में विस्तार से बताया है जो मनुष्य के अंदर विद्यमान होते हैं और जिनके आधार पर वह अपने जीवन के निर्णय लेता है।
प्रसंग (Context)
महाभारत के भीषण युद्ध के क्षणों में, अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने कर्तव्य और धर्म को लेकर गहरे संदेह और उलझनों का सामना किया था। इस मानसिक संघर्ष के दौरान, भगवान श्रीकृष्ण ने उसे सही मार्गदर्शन देने के लिए विभिन्न श्लोकों के माध्यम से शिक्षा दी। सोलहवें अध्याय में, कृष्ण ने दैवी और आसुरी गुणों का वर्णन किया ताकि अर्जुन यह समझ सके कि कौन से गुण उसे धर्म के मार्ग पर अग्रसरित करेंगे और कौन से गुण उसे अधर्म की ओर ले जाएंगे।
श्लोक का अर्थ और भावार्थ (Meaning)
इस श्लोक का सरल हिंदी में अर्थ निम्नलिखित है:
“इस संसार में दो प्रकार के स्वभाव हैं—दैवी और आसुरी। मैंने तुम्हें दैवी स्वभाव के बारे में विस्तार से बताया है, अब पार्थ (अर्जुन) तुम आसुरी स्वभाव के बारे में सुनो।”
द्वौो भूतसर्गो लोकेउस्मिन्दैव आसुर एव च।
इस पंक्ति में कृष्ण कह रहे हैं कि इस संसार में दो प्रकार के स्वभाव उत्पन्न होते हैं। ‘भूतसर्गो’ का मतलब है ‘स्वभावों का निर्माण’। ‘दैवी’ का अर्थ है देवताओं या सकारात्मक गुणों से संबंधित, जबकि ‘आसुरी’ का अर्थ है असुरों या नकारात्मक गुणों से संबंधित। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर कुछ दैवी गुण होते हैं जो उसे अच्छा बनाते हैं, और कुछ आसुरी गुण होते हैं जो उसे बुरा बनाते हैं।
देवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे श्रुणु॥
इस पंक्ति में कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि उन्होंने पहले दैवी स्वभाव के बारे में विस्तार से बताया है, अब उन्हें आसुरी स्वभाव के बारे में सुनने की आवश्यकता है। ‘विस्तरशः’ का मतलब है विस्तार से, और ‘प्रोक्त’ का अर्थ है बताया गया। ‘पार्थ’ अर्जुन का एक अन्य नाम है।
दार्शनिक और आध्यात्मिक शिक्षाएँ
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हर व्यक्ति के अंदर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के गुण विद्यमान होते हैं। दैवी गुण जैसे कि सत्य, अहिंसा, धैर्य, दया, और करुणा, व्यक्ति को आत्मिक उन्नति की ओर ले जाते हैं। वहीं, आसुरी गुण जैसे कि अहंकार, क्रोध, लोभ, घमंड, और द्वेष, व्यक्ति को अधर्म की ओर धकेलते हैं और उसके आत्म-विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं।
भगवद्गीता में इस द्विधा का उल्लेख यह दर्शाता है कि जीवन में सही और गलत, अच्छा और बुरा, स्वतंत्रता और बंधन—इन सभी का संतुलन महत्वपूर्ण है। कृष्ण अर्जुन को यह समझाना चाहते थे कि उसे अपने अंदर के दैवी गुणों को विकसित करना चाहिए और आसुरी गुणों से दूर रहना चाहिए। यह मार्गदर्शन न केवल अर्जुन के लिए बल्कि आज के आधुनिक समाज में भी उतना ही प्रासंगिक है।
आज के युग में, जहाँ लोग अनेक प्रकार के दबावों और चुनौतियों का सामना करते हैं, यह श्लोक हमें यह याद दिलाता है कि हमारे अंदर के गुण ही हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं। यदि हम अपने भीतर के दैवी गुणों को बढ़ावा देंगे, तो हम न केवल व्यक्तिगत रूप से मजबूत बनेंगे, बल्कि समाज में भी सकारात्मक परिवर्तन ला सकेंगे। इसके विपरीत, अगर हम अपने आसुरी गुणों को बढ़ावा देते हैं, तो हमारा जीवन संघर्षों और असंतोषों से भरपूर हो सकता है।
ऐतिहासिक और पौराणिक पृष्ठभूमि
महाभारत के युद्ध के समय, अर्जुन ने देखा कि उसके अनेक संबंधी और प्रियजन उसके विरोध में हैं। इस मानसिक तनाव में, वह अपने कर्तव्य और प्रेम के बीच संतुलन स्थापित करने में असमर्थ था। इसी क्षण में कृष्ण ने उसे शिक्षा देने के लिए दैवी और आसुरी गुणों का वर्णन किया, ताकि वह सही निर्णय ले सके। यह संवाद न केवल अर्जुन के लिए बल्कि समस्त मानव जाति के लिए एक महत्वपूर्ण शिक्षण है, जो हमें यह सिखाता है कि हमारे अंदर के गुण ही हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि हमें अपने अंदर के दैवी गुणों को पहचानना और उन्हें विकसित करना चाहिए, जबकि आसुरी गुणों से दूर रहना चाहिए। इससे हम न केवल आत्मिक रूप से मजबूत बनते हैं, बल्कि समाज में भी शांति और समरसता का वातावरण बना पाते हैं।
प्रवृत्ति चर निवृत्ति च जना न विदुरासुराः ।
न शौच नापि चाचारो न सत्य तेषु विद्यते ॥
इस श्लोक में भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय “दैवासुर-संपद्विभाग योग” का सार प्रस्तुत किया गया है। महाभारत के भीषण युद्ध के समय, अर्जुन ने अपने कर्तव्य, धर्म और नैतिकता के संबंध में गहरे संदेह और उलझनों का सामना किया था। इस मानसिक संघर्ष के दौरान, भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मानव स्वभाव के दो पहलुओं—दैवी और आसुरी—के बारे में विस्तृत जानकारी दी। इस श्लोक में वे विशेष रूप से आसुरी गुणों का वर्णन कर रहे हैं, ताकि अर्जुन समझ सके कि कौन से गुण उसे अधर्म की ओर ले जाते हैं और उसके आत्मिक विकास में बाधा उत्पन्न करते हैं।
श्लोक के प्रत्येक पद का सरल हिंदी में अर्थ इस प्रकार है:
प्रवृत्ति चर निवृत्ति च जना न विदुरासुराः ।
यह पंक्ति बताती है कि आसुरी लोग प्रवृत्ति (कार्य करने की प्रवृत्ति), चर (आचरण या व्यवहार) और निवृत्ति (संन्यास या कर्मों से विराम) के सिद्धांतों को नहीं जानते। अर्थात, वे अपने जीवन में सही दिशा और नैतिकता का पालन नहीं करते।
न शौच नापि चाचारो न सत्य तेषु विद्यते ॥
इस भाग में कहा गया है कि इन आसुरी लोगों में शौच (स्वच्छता और पवित्रता), चाचार (आत्म-नियंत्रण और अनुशासन) और सत्य (सच्चाई) की कोई विद्या नहीं होती। वे न केवल अपने शरीर और मन को स्वच्छ नहीं रखते, बल्कि अपने कार्यों में भी अनुशासनहीन होते हैं और सत्य का पालन नहीं करते।
भगवद्गीता के इस श्लोक का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि जीवन में नैतिकता और नैतिक गुणों का कितना महत्व है। आसुरी गुण जैसे कि घमंड, क्रोध, लोभ, अहंकार और असत्याचार व्यक्ति को अधर्म की ओर धकेलते हैं, जिससे उसका आत्मिक विकास रुक जाता है। ये गुण न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बुराई का कारण बनते हैं, बल्कि समाज में भी अशांति और संघर्ष उत्पन्न करते हैं।
इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखाना चाहते थे कि उसे अपने अंदर से इन नकारात्मक गुणों को दूर करना चाहिए और दैवी गुणों को अपनाना चाहिए। दैवी गुण जैसे कि सत्य, अहिंसा, धैर्य, शौच, दया और करुणा व्यक्ति को आत्मिक उन्नति की ओर ले जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति में सहायक होते हैं। वहीं, आसुरी गुण व्यक्ति को अधर्म, पतन और आत्मिक संकट की ओर ले जाते हैं।
आज के समय में, जहाँ समाज में कई प्रकार की नैतिक और आध्यात्मिक चुनौतियाँ सामने आ रही हैं, यह श्लोक उतना ही प्रासंगिक है जितना कि महाभारत के युद्ध के समय था। व्यक्ति को अपने भीतर के दैवी गुणों को पहचानकर उन्हें विकसित करना चाहिए और आसुरी गुणों से दूर रहना चाहिए। इससे न केवल व्यक्ति का व्यक्तिगत विकास होता है, बल्कि समाज में भी शांति और समरसता बनी रहती है।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जीवन में सही मार्गदर्शन और नैतिकता कितनी महत्वपूर्ण होती है। आसुरी स्वभाव के गुण न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बुराई का कारण बनते हैं, बल्कि समाज में भी अशांति और संघर्ष उत्पन्न करते हैं। इसलिए, हमें अपने जीवन में दैवीय गुणों को अपनाना चाहिए और आसुरी गुणों से दूर रहना चाहिए, ताकि हम आत्मिक उन्नति के साथ-साथ समाज में भी शांति और समरसता ला सकें।
असत्यमप्रतिष्ठू ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूत॑ किमन्यत्कामहैतुकम् ॥
यह श्लोक भारतीय धार्मिक ग्रंथों में गहन दार्शनिक विचारों को प्रस्तुत करता है। इस श्लोक में सत्य के अभाव में जगत् को निःस्वार्थ और अधर्मपूर्ण बताया गया है, और यह प्रश्न उठाया गया है कि पारस्परिक उत्पन्न इच्छाओं के अलावा क्या अन्य इच्छाएँ उपयुक्त हो सकती हैं।
श्लोक का अर्थ:
असत्यम् अप्रतिष्ठू ते जगद् आहुर् अनि-ईश्वरम्।
जो लोग असत्य पर आधारित हैं, उनका जगत् को निःईश्वर कहा जाता है। अर्थात्, सत्य के बिना जीवन और समाज में आध्यात्मिकता और नैतिकता का अभाव होता है। असत्य का आधार रखने वाले लोग धार्मिक और नैतिक दृष्टि से कमजोर माने जाते हैं, जिससे उन्हें ईश्वर के बिना माना जाता है।
अपरस्परसम्भूतः किम् अन्यत्कामहैतुकम् ॥
चूंकि इच्छाएँ पारस्परिक उत्पन्न होती हैं, अर्थात् समाज और अन्य लोगों के प्रभाव में विकसित होती हैं, तो अन्य प्रकार की इच्छाएँ क्या हो सकती हैं जो उपयुक्त हों? यह पंक्ति यह सवाल उठाती है कि जब इच्छाएँ दूसरों के प्रभाव में उत्पन्न होती हैं, तो क्या वे सही और नैतिक हैं या नहीं।
दार्शनिक और आध्यात्मिक संदेश:
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि सत्य और नैतिकता का पालन करना कितना महत्वपूर्ण है। जब हमारा जीवन असत्य पर आधारित होता है, तो हमारा समाज और व्यक्तिगत विकास नष्ट हो जाता है। सत्य की स्थापना से ही समाज में धर्म, नैतिकता और आध्यात्मिकता की नींव मजबूत होती है। इसके विपरीत, असत्य और अधर्म का आधार रखने वाला समाज निरंकुश और विनाशकारी बन जाता है।
दूसरी ओर, इच्छाओं का पारस्परिक उत्पन्न होना यह दर्शाता है कि हमारी इच्छाएँ समाज, संस्कृति और अन्य लोगों के प्रभाव में विकसित होती हैं। इसलिए, यह आवश्यक है कि हमारी इच्छाएँ नैतिक और सत्य के मार्ग पर हों, ताकि हम एक संतुलित और नैतिक जीवन जी सकें। यदि हमारी इच्छाएँ केवल व्यक्तिगत लाभ या असत्य पर आधारित हों, तो वे न केवल हमारे व्यक्तिगत विकास में बाधा डालेंगी बल्कि समाज में भी अशांति और अव्यवस्था फैलाएंगी।
आधुनिक संदर्भ में श्लोक का महत्व:
आज के आधुनिक समाज में, जहाँ व्यक्ति अनेक प्रकार के दबावों और प्रभावों के बीच जीवन व्यतीत कर रहा है, यह श्लोक उतना ही प्रासंगिक है जितना कि प्राचीन काल में था। सोशल मीडिया, विज्ञापन, और अन्य बाहरी प्रभावों के कारण हमारी इच्छाएँ और प्राथमिकताएँ अक्सर विकृत हो जाती हैं। इस श्लोक का संदेश यही है कि हमें अपने जीवन में सत्य और नैतिकता को प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि हमारी इच्छाएँ सही दिशा में विकसित हों और समाज में शांति और समरसता बनी रहे।
उदाहरण के तौर पर, यदि कोई व्यक्ति केवल भौतिक सफलता की इच्छा में असत्य पर आधारित काम करता है, तो वह न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में असंतोष महसूस करेगा बल्कि समाज में भी नैतिक पतन का कारण बनेगा। इसके विपरीत, सत्य और नैतिकता के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति न केवल आत्मिक संतोष प्राप्त करता है बल्कि समाज में भी सकारात्मक परिवर्तन लाता है।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि सत्य की स्थापना और नैतिकता का पालन ही एक सच्चे और संतुलित जीवन का आधार है। हमें अपनी इच्छाओं को सत्य और नैतिकता के आधार पर विकसित करना चाहिए, ताकि हम न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में सफलता प्राप्त कर सकें बल्कि समाज में भी शांति और समृद्धि का वातावरण बना सकें।
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानो अल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्ति उग्रकर्माणः क्षयाय जगतः हिताः ॥
इस श्लोक में भगवद्गीता के १६वें अध्याय का वर्णन किया गया है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को दैवी और आसुरी गुणों के बारे में विस्तार से बताते हैं। इस श्लोक में वे उन लोगों के बारे में चर्चा कर रहे हैं जो नष्टात्मा और अल्पबुद्धि वाले होते हैं, और जिनकी दृष्टि जगत के हित के बजाय क्षय की ओर होती है।
श्लोक का अर्थ:
एतां दृष्टिमवष्टभ्य
इस दृष्टिकोण को अपनाकर।
नष्टात्मानो
जो आत्मा को नष्ट करने वाले होते हैं, अर्थात् जो स्वयं के लिए और दूसरों के लिए हानि का कारण बनते हैं।
अल्पबुद्धयः
अल्प बुद्धि वाले, जिनकी समझ और विवेक कम होता है।
प्रभवन्ति उग्रकर्माणः
वे उग्र और हिंसक कर्म करते हैं।
क्षयाय जगतः हिताः
जगत् के क्षय (विनाश) के लिए हितकारी नहीं, बल्कि नुकसानकारी होते हैं।
भावार्थ:
जो लोग नष्टात्मा और अल्पबुद्धि वाले होते हैं, वे इस दृष्टिकोण को अपनाकर उग्र और हिंसक कर्म करते हैं, जो जगत् के लिए हानिकारक होते हैं। इनका उद्देश्य स्वयं और दूसरों की भलाई नहीं, बल्कि विनाश है।
फिलॉसॉफिकल और आध्यात्मिक संदेश:
यह श्लोक यह सिखाता है कि नष्टात्मा और अल्पबुद्धि वाले लोग अपने दृष्टिकोण के कारण समाज में विनाशकारी प्रभाव डालते हैं। उनकी हिंसक प्रवृत्ति और क्षयकारी कर्म समाज के लिए हानिकारक होते हैं। इस प्रकार के लोग नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से कमजोर माने जाते हैं, क्योंकि वे सत्य और धर्म के मार्ग से भटक जाते हैं और अधर्म की ओर अग्रसर होते हैं।
भगवद्गीता में इस प्रकार के श्लोक यह स्पष्ट करते हैं कि सही दृष्टिकोण और उच्च बुद्धि से व्यक्ति न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में संतुलन और शांति प्राप्त कर सकता है, बल्कि समाज में भी सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है। इसके विपरीत, नष्टात्मा और अल्पबुद्धि वाले लोग समाज में अशांति और संघर्ष पैदा करते हैं, जिससे सम्पूर्ण जगत् का क्षय होता है।
इस श्लोक का संदेश आज के समय में भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि प्राचीन काल में था। आधुनिक समाज में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो अपने स्वार्थ और अधर्म की ओर अग्रसर होते हैं, जिससे समाज में तनाव और असंतोष फैलता है। इस श्लोक के माध्यम से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने दृष्टिकोण को सुधारकर और बुद्धि का विकास करके समाज के लिए हितकारी बनना चाहिए, ताकि हम एक शांतिपूर्ण और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकें।
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहादगृहीत्वासदग्राहान्प्रवर्तन्ते डशुचित्रताः॥
यह श्लोक भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय “दैवासुर-संपद्विभाग योग” से लिया गया है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को दैवी (दैवीय) और आसुरी (असुरीय) गुणों के बारे में विस्तृत रूप से बताते हैं। महाभारत के युद्ध के भीषण समय में, जब अर्जुन ने अपने कर्तव्य, धर्म और जीवन के गूढ़ प्रश्नों का सामना किया, तब श्रीकृष्ण ने उसे यह समझाने के लिए इन श्लोकों का प्रयोग किया कि किस प्रकार के गुण व्यक्ति को नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से प्रभावित करते हैं।
श्लोक का सरल हिंदी में अर्थ निम्नलिखित है:
काममाश्रित्य दुष्पूरं
यहां “काममाश्रित्य” का मतलब है कामों या इच्छाओं पर निर्भर होकर। “दुष्पूरं” का अर्थ है बुरी या अशुभ। तो पूरा अर्थ है, इच्छाओं पर निर्भर होकर बुरी स्थितियों को अपनाना।
दम्भमानमदान्विताः
“दम्भमानम्” का मतलब है गर्वित या अहंकारी होना। “अदान्विताः” का अर्थ है बिना दया के। अतः यह भाग दर्शाता है कि वे लोग गर्व और अहंकार से भरपूर होते हैं, साथ ही उनमें दया की कमी होती है।
मोहादगृहीत्वासदग्राहान्
“मोहाद” का अर्थ है मोह से, “गृहीत्वा” का मतलब है धारण करके, और “असदग्राहान्” का अर्थ है अधर्म या गलत कार्य। इस भाग का अर्थ है कि वे लोग मोह के कारण अधर्म को अपना लेते हैं।
प्रवर्तन्ते डशुचित्रताः
“प्रवर्तन्ते” का मतलब है प्रवृत्त होना या कार्य करना। “डशुचित्रताः” का अर्थ है विकृत या अपवित्र रूप से कार्य करना। तो यह दर्शाता है कि ऐसे लोग विकृत और अपवित्र तरीके से कार्य करते हैं।
पूर्ण अर्थ:
जो लोग अपनी इच्छाओं पर निर्भर होकर बुरी स्थितियों को अपनाते हैं, गर्व और अहंकार से भरपूर होते हैं, बिना दया के रहते हैं, मोह के कारण अधर्म को अपना लेते हैं, और विकृत तथा अपवित्र तरीके से कार्य करते हैं—ऐसे लोग असुरी संपदा से जुड़े होते हैं। ये गुण न केवल उनके व्यक्तिगत विकास में बाधा डालते हैं, बल्कि समाज में भी अशांति और संघर्ष उत्पन्न करते हैं।
दार्शनिक और आध्यात्मिक संदेश:
इस श्लोक का मुख्य संदेश यह है कि इच्छाओं पर अत्यधिक निर्भरता, गर्व, अहंकार, मोह, और अधर्म व्यक्ति को नैतिक और आध्यात्मिक पतन की ओर ले जाते हैं। ये गुण न केवल व्यक्तिगत जीवन में असंतोष और संघर्ष पैदा करते हैं, बल्कि समाज में भी असमानता, अत्याचार और हिंसा को बढ़ावा देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाना चाहते थे कि इन आसुरी गुणों को त्यागकर दैवीय गुणों को अपनाना ही सही मार्ग है, जिससे व्यक्ति आत्मिक उन्नति प्राप्त कर सकता है और समाज में शांति और समरसता स्थापित कर सकता है।
आज के आधुनिक समाज में भी, जहाँ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ, अहंकार, और अधर्म के उदाहरण हमें रोजमर्रा के जीवन में देखने को मिलते हैं, यह श्लोक उतना ही प्रासंगिक है। यह हमें यह सिखाता है कि हमें अपनी इच्छाओं, गर्व, और मोह को नियंत्रित करके नैतिकता और सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए, ताकि हम न केवल अपने व्यक्तिगत जीवन में संतुलन और शांति पा सकें, बल्कि समाज में भी सकारात्मक बदलाव ला सकें।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें यह समझाता है कि दैवीय गुणों को अपनाना और आसुरी गुणों से दूर रहना ही आत्मिक उन्नति और सामाजिक समृद्धि का मार्ग है। भगवद्गीता का यह शिक्षण आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि महाभारत के युद्ध के समय था।